शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

सूखे ह्रदय की प्यास

कुछ ग़ज़लों के बाद अब फिर से अपने पुराने ढर्रे पे लौट आया हूँ.. हाँ जी मेरे गीत मेरे दर्द.. असल मे जब आपके बहुत से बिखरे अरमान होते हैं तो उनको ना पा पाने का दर्द ही उन अरमानों को भुला देता है.. तकलीफें इतनी ज्यादा बढ़ जाती हैं की आप इच्छाओं को तो भुल ही जाते हो उन दर्दों के आगे....

मधुशाला की मेजों पे,
छलकते हुए कुछ गिलास,
बहके से चंद मायूस लोग,
और कुछ टूटी हुई आस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


यादों की परछाइयों से,
डरती हुई हर एक सांझ,
नित्य रात के अंधेरों मे,
घुटती हुई हर एक सांस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


मन बावरे की ख्वाहिसें,
फिर कुछ घबराते आभास,
मन के कई करुण गीत,
और मेरी खामोश आवाज,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


वक़्त के चलते पहिये,
कुछ छुटते हुए से हाथ,
दुखते हुए से कुछ घाव,
उनको गहराती तेरी याद,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.
बुधवार, 28 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

ख्वाहिश - एक और ग़जल

मुझे कुछ इस कदर नशा सा हो गया है ग़जल लिखने का की बस हाथ थमते ही नहीं... लीजिये पेश ए खिदमत है एक और ग़जल .. दिल के बेहद करीब.. :)

 
तुझ से मिलने की जब कभी भी ख्वाहिश की थी,

मजबूरियों ने तब कुछ रुकने की फरमाइश की थी.



इक दफा फिर से तेरी यादों ने रुलाया है मुझको,

रुक्सती के दिन भी तो अस्कों ने नुमाइश की थी.



अब भी तो सोचा करता हूँ अक्सर तेरे चेहरे को,

उस वक़्त भी तेरे इक दर्श की आजमाइश की थी.




मालुम था की तेरे दिल मे कोई जगह नहीं मेरी,

फिर भी सफ़र मे कुछ पल की गुंजाइश की थी.



आँखों मे अब तलक भी दिखता है अक्स तेरा,

तेरी नजरों ने मेरी आँखों मे ये जेबा'इश की थी.



तू ही बता कैसे छोडूं अब इस तन्हाई का साथ,

बिन तेरे इसके दम ही जीने की आराइश की थी.


कुछ कठिन लफ्जों के अर्थ:  


जेबा'इश - बसाना, स्थापित करना.
आराइश - सजावट
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक और ग़जल

एक और ग़जल फिर से पेश करना चाहूँगा.. अजब सा नशा है कुछ ग़जल लिखने का भी.. कोई भुल चुक हुई हो तो टिपण्णी के रूप मे जरुर उसे उभारें.. अभी बस सीखने की कोशिश भर कर रहा हूँ.. आप से अच्छा कौन आंकलन कर पायेगा... 



ज़ाब तेरी हाफिजाह का सह भी नहीं पाता,

पर तेरे ख्यालों बिना अब रह भी नहीं पाता.



सीना-ए-बिस्मिल गाहे गाहे इस कदर रोता है,

छुपाये ना छुपे क्या करूं अब कह भी नहीं पाता.



दिल-ए-कस्ता कुछ इस ढब मजरूह हो चुका,

दवा करो लाख ये आलम अब ढह भी नहीं पाता. 



आब-ए-तल्ख़ इस हद फना हो चुके निगाहों से,

जु-ए-दर्द  पर कतरा अश्क अब बह भी नहीं पाता.



कुल्ज़ुम-ए-गम मे इस अंदाज फंस चुका हूँ यारों,
 
कोसों निकल आया और अब सतह भी नहीं पाता. 


लीजिये जनाब कुछ कठिन लफ्जों के अर्थ :

अज़ाब - दुःख, चुभन, कचोट
हाफिजाह - यादें
सीना-ए-बिस्मिल - जख्मों भरा दिल
गाहे गाहे - कभी कभी
दिल-ए-कस्ता - घायल दिल
मजर्रुह - घावों से भरा
आब-ए-तल्ख़ - आँख के आंसू
जू-ए-दर्द - बेइन्तेहाँ दर्द
कुल्जुम-ए-गम - गम का सागर
रविवार, 25 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक ग़ज़ल

वैसे तो ग़ज़ल मे लिखता नहीं.. और ना ही मेरी इतनी औकात है.. पर फिर भी कुछ कचोटा सा मन आज किसी बात से, तो बस एक कोशिश भर कर दी... देखें कितना सफल हुआ हूँ....  



तेरे अहद-ए-तरब ने कुछ इस ढब अश्क बार किया,

मेरी खरोश से तो दहर भर ने भी अश्क बार किया.



कुछ अघ्लाब से आशना ने हम पे वासिक वार किया,

क़ल्ब तो रोया ही मगर पैकर ने भी अश्क बार किया.



दम-बा-दम तुने खवाबों को इस कदर तार तार किया,

दयार-ए-खुफ्तागां मे बंद नजर ने भी अश्क बार किया.



कुछ इस कदर हमने लम्हात-ए-याद-ए-यार किया,

मेरा दर्द अंगेज दीद हरेक पहर ने भी अश्क बार किया.



खामोशियों मे जब कभी बसर करने का काविश किया,

तेरा जिक्र सुझा कहीं तब हर दर ने भी अश्क बार किया.


 
वक़्त की हर एक सुई  कुछ  इस कदर तेरे दस्तों दे दी थी,

वापिस माँगा तो मेरे हरेक  सफ़र ने भी अश्क बार किया.

कुछ कठिन शब्दों के अर्थ..
 


अहद-ए-तरब - खुशनुमा वक़्त मे किये गए वादे
खरोश - चीखना या रोना
दहर - जमाना
अघ्लाब - इस कदर
आशना - मोहब्बत या कोई दिल के करीब
वासिक - कठोर
दयार-ए-खुफ्तागां - सोती हुई दुनिया
दस्तों - हाथों
काविश - सोचा

शनिवार, 24 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

कैसे अपनी बेइज्जती करा लें... आखिर हमे भी नाम कमाने का शौक है भाई..

नौकरी बजाने के ही एक चक्कर मे शहर से बाहर निकले और एक गाजीपुर नमक जिले मे जा पहुंचे. आयकर विभाग मे कुछ औडिट करनी थी तो वहीँ आयकर अधिकारी जी के सामने बैठे थे. साथ मे कोई एक सज्जन और थे कुछ नेता सरीखे या शायद ठेकेदार, अब ये नहीं बता सकता की समाज के या की किसी और चीज के. खैर जो भी थे थे बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व. उनकी एक बात ने बड़ा ही प्रभावित किया इतना की बस हम तुरंत ही चाहने लगे की बस  कोई आये हमारी बेइज्जती कर दे.. हाँ जी हम तब से अपनी बेइज्जती को तरस रहे हैं साहिब. अब वो बात क्या थी ये भी सुन लीजिये. बकौल उनके आप अपनी बेइज्जती करा लीजिये तो आप विश्व मे जरुर एक ना एक दिन अपना नाम कर लेंगे. नहीं जी ये कोई हवाई बातें नहीं उन्होंने तीन बहुत बड़े बड़े तर्क दिए हमे इस बात के पीछे के. आप भी पढ़िए वो तर्क या वो उदहारण..

पहला तर्क था महात्मा गाँधी जी का जिसमे उनकी दक्षिण अफ्रीका मे एक ट्रेन मे कुछ अंग्रेजों ने उनको बेइज्जत किया था बावजूद इसके की उनके पास प्रथम श्रेणी का टिकेट था. इस बात ने बापू को इस कदर आहत किया की वहां से उन्होंने ठानी की बस अब तो इन सब अत्याचारों के खिलाफ एक अहिंसात्मक जंग छेड़नी होगी और वो दिन था और आज का दिन है कौन नहीं जानता विश्व भर मे बापू को. ये था बेइज्जत होके नाम कमाने वाला पहला तर्क.


दूसरा उदाहरण था बाबा भीम राव अंबेडकर का. कोई एक बारिश के दिन जब बाबा साहेब छोटे बालक थे किसी एक मकान की आड़ मे खड़े हो गए भीगने से बचने के लिए. इसी बीच मकान मालिक ने उन्हें खड़ा देखा और ज्यूँ ही उसे पता चला की ये बालक तो अछूत है, बस क्या था खुद भीगते हुए उसने बाबा साहेब को वहां से खदेड़ दिया. एक घटना और थी जहां पे बालक अंबेडकर किसी बेलगाडी मे बैठ के जा रहे थे, राह मे ही बैलगाड़ी वाले ने उनसे उनके पिता का नाम पुछा और जैसे ही उसे पता चला की बालक तो एक दलित पुत्र है उसने बाबा साहेब को गाडी से उतार दिया. बस उसी दिन बाबा साहेब ने शायद कुछ सोचा और आज के दिन हम जिस देश मे रह रहे हैं वो और उसका हर नागरिक उनके लिखे सिद्धांतों नियमों पे चल रहा है वो चाहे एक दलित हो या कोई ऊँची जात का, एक गरीब हो या बहुत धनवान व्यक्ति.

तीसरा उदाहरण था तुलसी दास जी का.. पत्नी प्रेम मे इतना व्याकुल हो बैठे की एक दिन बिना किसी सुचना या आमंत्रण के वो पहुँच गए अपनी पत्नी से मिलने उनके मायके. बस क्या था उनकी पत्नी उन्हें यकायक देख के कुछ इस तरह शर्मिंदा और क्रोधित हुई की उन्होंने कुछ इस तरह से तुलसी दास जी को कोसा की इस तरह का प्रेम जो तुम मुझसे करते हो बिना बुलाये इस तरह से आ पहुंचे लोग क्या कहेंगे, इतना प्रेम अगर तुमने भगवान से किया होता तो कुछ सार्थक होता. बस ये थी वो बेइज्जती जहां से उन्होंने कुछ ऐसा कर डाला की आज वो विश्व के एक महानतम ग्रन्थ श्री राम चरित मानस के रचयिता के रूप मे जाने जाते हैं.

बस ये तीन महापुरुष और उनकी ये बेईज्जतियाँ. बस हमारे मन मे तब से एक प्रबल इच्छा धर कर बैठी की कोई तो आये और कुछ इस कदर बेइज्जती कर दे की बस हम भी कुछ कर जाएँ इस दुनिया मे.  पर कोई उपाय सुझा ही नहीं जिससे हम खुद की बेइज्जती करा पाएं. हाँ एक और बात आती है मन मे की क्या आज के दौर मे जब हर कदम पे नफरत, गतिरोध और जलन रुपी महादानव व्याप्त है तो क्या बेइज्जती रुपी दानव अकेला इनको हरा पायेगा और क्या आज हमारे पास इतनी शर्म और इच्छाशक्ति व्यापत है की हम एक कठोर निर्णय लेके उसपे अमल कर पाएंगे. हाँ क्यूँ नहीं पर उसके लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ेगा शायद वो सब कुछ जिसकी हमे आदत है और जिसके बिना हम जीने की सोच भी नहीं पाते.

बेइज्जती हो जाने भर से हम सफल हो जायेंगे??

नहीं बिलकुल भी नहीं. उदाहरण पढने मे तो लगता है हमे भी सुनने मे लगा था की बस बेईज्जती हो जाएगी, मन कुछ कचोट देगा और कुछ कर जायेंगे. पर नहीं वो बेइज्जती भी सिर्फ उन्ही को कचोट सकती है जिनके पास परम इच्छा शक्ति, परम अंतर बल, कठोर मानसिकता और परम सहनशीलता हो. जो उन तीनों के पास था.

पर हमारे पास शायद नहीं है क्यूंकि हम तो हमेशा से आज की उन्नत तकनीक का सहारा लेके जीते आये हैं. चलने को गाडी ऑटो सब मौजूद है. खाने को दुनिया भर के व्यंजन बस जेब भर की दूरी पे हैं. इस कंप्यूटर और मशीनी दुनिया मे आत्म सम्मान और शर्म भी बस दिखावे भर के लिए ही बची है.

पर कोई बात नहीं आप एक बार कोशिश कर के देखिये. हाँ जनाब कोशिश करिए की कोई आपकी भरे समाज मे बेइज्जती का दे क्या पता आपका आत्म सम्मान इतना मजबूत हो की आप उठके कुछ कर ही जाएँ. कोशिश करने मे क्या जा रहा है तो बस कुछ उपाय ढूंढिए अच्छे अच्छे और हमे भी बताइए की कैसे अपनी बेइज्जती करा लें... आखिर हमे भी नाम कमाने का शौक है भाई..
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

हाँ आज फिर ये दिल रोया है

लो आज फिर याद आ बैठा,
की तू दूर है मुझसे कहीं,
इल्म था उसका जो खोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

भूलने की नकली कोशिश,
हंसी का नकाब ओढ़े चेहरा,
गम को बहुत मन मे ढोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

बिखरी हुई सी ढेरों आरजू,
टूटी सी हजारों ख्वाहिशें,
अब हर सपना तक तो सोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

लहूलुहान सा मेरा ये मन,
अचेत सा मेरा ये जीवन,
शायद वही  पाया जो बोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

खामोश सी चीखती तड़प है,
आंसू भी तो निकलते नहीं,
फूलों ने भी तो हमे चुभोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

कैसा होता है दीवाना..

अश्रुओं की धारा,
ग़मों का दरिया,
यादों का सागर,
बस कुछ ऐसा ही....


दर्द भरा दिल,
सपनों भरा चेतन,
चित्त मे कई मर्म,
बस कुछ ऐसा ही....

खामोश सी जुबान,
बहकते से कदम,
बुझती सी आँखें,
बस कुछ ऐसा ही....

प्रेम को तलाशता,
पुष्पों को निहारता,
सोचता सा हरदम,
बस कुछ ऐसा ही....

बेरंग जिसका रंग,
ढीला सा एक बदन,
उलझा हुआ जीवन,
बस कुछ ऐसा ही....

मुट्ठी बंद हाथ,
बिखरी सी उंगलियाँ,
उनमे चलती अनबन,
बस कुछ ऐसा ही....

काँटों पे चलता,
पंखुड़ियों से डरता,
खुशबू से उलझन,
बस कुछ ऐसा ही,
होता है एक दीवाना...

जिंदगी खो दी मैंने तो

वक़्त भी ना मिल पाया मुझको कभी अगर माँगा भी तो ..
उस एक वक़्त की कमी से पूरी जिंदगी ही खो दी मैंने तो..

दोबारा जी भी सकूँगा के नहीं पता नहीं अब जिंदगी तुझे..
तेरी ही चाह में हर पल की अपनी ख़ुशी ही खो दी मैंने तो..

कभी यादों ने परेशां किया तो कभी दिल के जख्मों ने..
परेशानियों को भुलाने मे बची हर हंसी ही खो दी मैंने तो..

खुदा से मांगी दुआएं की दिल को सुकून कुछ तो मिले,
मांगने की फितरत मे खुदा की बंदगी ही खो दी मैंने तो..

मशगुल तब तो कुछ जेहन रहने लगा हर घड़ी सोचों मे..
इन सोचों के घेरों मे अपनों की कमी ही खो दी मैंने तो..

मय पीना फितरत तो ना थी पर फिर आदत सी बन गयी..
नशे मे इस कदर डूबा की अपनी जमीं ही खो दी मैंने तो..

महकती हुई फिजाओं मे भी दुस्वारियां सी दिख्नने लग गयी..
काँटों को छांटने मे महकते फूलों की खुशबू ही खो दी मैंने तो..

अधूरी सी कुछ ख्वाहिशें हर पल हर कदम सताती मुझको..
ख्वाहिशों की चाहत मे रिश्तों की हर कड़ी ही खो दी मैंने तो..
बुधवार, 21 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

किराये की जिंदगी

कभी किसी कभी किसी की,
हमेशा दूसरों की तर्ज पे जी,
पता नहीं अपनी कब होगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

कभी रिश्तों कभी दोस्तों की,
ख्वाहिशें दूजों के मन की ही,
मेरी अधूरी इच्छाओं से भरी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मंजिलें तो तय थी खुद की,
पर रास्ते दुनिया दिखाती,
रास्तों मे कहीं उलझी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

जन्म से ही दूसरों से सीखा,
जो अच्छा लगा वो था बुरा,
अच्छे बुरे मे कुछ फंसी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मौत भी कुछ अजनबी सी,
चाहने पे वो भी आती नहीं,
किराये से छूटने मे लगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.
रविवार, 18 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक अधुरा सा लेख और एक सवाल.... जवाब आप दो..

कभी रात के अंधेरों मे तन्हाई से गुजरते हुए मन मे कई बार ये ख्याल सा आया की ये जीवन है क्या.. और क्यूँ इतना आशान्वित हैं लोग इसको लेके. जीवन तो इतने कष्ट देता है सबको, हाँ खुशियाँ भी देता है जरुर. और मौत को देखिये शांत सी पड़ी हुई सुकून देती हुई. फिर याद आया अपना एक सफ़र लखनऊ से नैनीताल का. रात्री करीब १ बजे मन मे पता नहीं क्या ख्याल आया की मे ट्रेन के दरवाजे को खोल के वहीँ पे बैठ गया. शांत सी लगने वाली हवा के थपेड़े बहुत जोर जोर से लग रहे थे, छोटी लाइन की गाडी थी तो कूदा कूदा के ऐसा एहसास दिला रही थी की मानो किसी बैलगाड़ी मे बैठा हुआ हूँ. इन सभी स्थितियों को सँभालते हुए स्वयं को स्थिर किया तो एक अनंत सुनसान ना जाने कहाँ तक फैली हुई धरती थी, कहीं कोई रौशनी नहीं, कहीं कोई आबादी नहीं, तो उस वक़्त लगा की काश जिंदगी ऐसी ही होती... शांत, विशाल सी, फैली हुई सी, चित्त कुछ शुन्य सा होके वहीँ पे खो सा गया और पता नहीं एक पल मे ना जाने कहाँ कहाँ घूम आया. पर पता नहीं क्यूँ कुछ देर मे ही थकान सी होने लगी और मन मे इच्छा हुई की चलो उठते हैं यहाँ से कुछ देर के लिए, मित्रों को जगाते हैं और अगले प्लेटफ़ॉर्म पे चाय का लुत्फ़ लेते हैं. पीलीभीत नाम का प्लेटफ़ॉर्म आया,  ट्रेन से उतर के कुल्हड़ वाली चाय ली, सच पूछिए तो ट्रेन के सफ़र मे जो कुल्हड़ की चाय का मजा हमारे भूतपूर्व मंत्री जी ने दे दिया उसका जितना भी धन्यवाद् किया जाए कम ही है. खैर चाय पीते हुए देखा उन प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए लोगों को, दौड़ते हुए खाली सीट और खचाखच भरे डिब्बों मे जगह ढूँढते हुए लोगों को, पैसा और रोटी मांगते बच्चों, औरतों और अपाहिजों को, चाय चाय चिल्लाते चाय वाले, कहीं प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए, बेंच पे शांत से किसी ओर निहारते हुए कुछ लोगों को, मगर सिर्फ देखा ही कुछ सोचा नहीं. ट्रेन का होर्न बजा और फिर से चढ़ बैठा मै अपनी उसी जगह पे... पर अब वही शांत सी जमीन मे वो मजा नहीं रहा था तो मैंने सोचा की क्यूँ अब क्या हुआ....तब लगा की हाँ जीवन को तो मैंने अभी ही देखा वो लोग वो भीड़ वो अलग अलग से चेहरे वो खुशियाँ वो गम ... लेकिन कुछ समझ सा नहीं आया की आखिर ये सब क्यूँ लगा, क्यूँ इतनी विरोधात्मक सोच.... क्या आप बता पायेंगे की क्यूँ...
बुधवार, 14 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

जिंदगी और रास्ता...

सब चलते ही तो हैं अपने जीवन मे... और ये पंक्तियाँ बस एक चलते जीवन के नाम...

किसी रोज चलते हुए,
एक ख्याल सा आया,
अपने जीवन को मापा,
पर सिर्फ एक शुन्य ही पाया.

उलझी सी कुछ राहें,
कुछ दुर्गम सा सफ़र,
अनजानी सी एक मंजिल,
हर मोड़ पे एक रोड़ा पाया.

कहीं सरल भी था कुछ,
कुछ साथी राही भी थे,
पर हर इक मुश्किल पे,
खुद को बस तन्हा पाया.

क्षुधा भी लगी बहुत पल,
तन का भी साथ ना था,
जल मिला अगर कहीं तो,
उसको भी खारा सा पाया.

सूरज की तपती किरणें,
धुप बहुत थी राहों मे,
छाँव ढूंढी कभी अगर तो,
पेड़ों को भी बिन पत्ते पाया.

लम्बा सफ़र कठिन डगर,
थकान भी लगी बहुत पल,
कुछ ठहरूं  सोचा जब तो,
वक़्त को भी कम सा पाया.

हुई इक प्रीत किसी मोड़ पे,
वादे किये कुछ उसने भी,
हमसफ़र बनने का सोचा तो ,
दिल से भी बस धोखा खाया.

बरगलाते हुए चंद चौराहे,
कुछ भटकाते मोड़ भी थे,
राहगीरों से पुछा कभी तो,
उन लोगों ने भी खूब छलाया.

ऐसा नहीं की मंजिल दूर थी,
दिखती सी भी एकदम सामने,
बढ़ चला उस ओर कभी तो,
बस गुमते से मोड़ों को पाया.

ठंडी सी कुछ कोमल किरणें,
रात के अंधियारों मे दिखती,
रौशनी की आड़ मे चला तो,
अंधेरों को गहराता सा पाया.

राहों के संग यादें भी थी,
और उनमे कुछ सपने भी,
सच करने की सोचा जब तो,
सपनों को अनदेखा सा पाया.

नींद भी कभी थी आँखों मे,
सोने का कुछ मन भी था,
बंद करी पलकें अगर तो,
नींदों को उड़ता सा पाया.

चलता तो हूँ अब भी मै,
पर कुछ अनजान सा हूँ,
खुद को ढूंढा अगर कभी तो,
अपने को खोया ही सा पाया.

इस सफ़र की अजब कहानी,
दिल मे भी कुछ थी बेचैनी,
लिखने की सोचा इसको तो,
स्याही को भी बेरंग सा पाया.
सोमवार, 12 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

मन की उमंगें

कुछ बावरा सा ही होता है मन, चाहे जिस किसी का भी हो, बहुत सी उमंगें और सोचें उसमे फलांग मारती रहती हैं.. उन्ही मे से कुछ मचलती सी  भावनाओं को बस लिख भर दिया है....

मन करता कभी उडूं मै,
चल जाऊं उस बादल पे,
सहलाऊं धीरे से उसको,
दो बूँद जल की ले आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
छु लूं मै उन तारों को,
तोड़ के बस किसी एक को,
मुट्ठी मे बंद कर लाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
और जाऊं चाँद के पास,
उसको थोडा सा छु कर के,
उसकी ठंडक को पा जाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
जाऊं उस सूरज पे चढ़,
थोडा सा फूक के उसको,
बस कुछ ठंडा कर आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
पक्षियों के संग संग जाऊं,
सीखूं उनसे चहचहाना,
और कुछ तिनके भी ले आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
बारिश की तह तक जाऊं,
ऊपर से देखूं गिरता उनको,
और थोडा सा रंग मिलाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
हवा के संग बहता जाऊं,
दूर चलूँ फिर किसी देश मे,
और थोड़ी सी मिटटी भर लाऊं.


मन करता कभी उडूं मै,
 दूर कहीं आसमान मे,
और देखूं फिर दुनिया को,
फिर वहां से इक चित्र बनाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
 पर्वतों पे कहीं पहुँच के,
उन पे गोदुं कुछ मन का,
और सबको अपने गीत दिखाऊं.

ऊपर वाला

मजहब ... कुछ स्वार्थी लोगों ने इस शब्द को कुछ इत्ता डरवाना बना दिया है की मजहब और धर्म का नाम कुछ खून का सा पर्याय बन गया है.. तो उन्ही भावनाओं को की किस तरह से हमारे घरों मे छोटे बच्चों को क्या सिखाया जा रहा है और इतनी गहनता के साथ बच्चे उसे सीख रहे हैं, मैंने इस रचना मे डाला है.. 

एक दिन उसको पिता ने बोला,
 
बेटा तेरे अन्दर बसते हैं भगवां,
 
खेलने को निकला बाहर दुनिया मे,
 
मिला एक मोहम्मद से कहीं पे,

बोला पता है तेरे अन्दर हैं भगवां,

मोहम्मद बोला हट तुझे नहीं पता,

मेरे अन्दर तो रहता है मेरा खुदा,

बस झगड़ पड़े दोनों बिन सोचे,

तब छोटा डेविड भी आया कहीं से,

पुछा अरे दोस्तों क्यूँ झगड़ते हो,

दोनों बोले बता तेरे अन्दर कौन,

डेविड बोला अन्दर तो ईसा बसता,

तो वो झगडा था एक मासूम सा,

पर था उनका पहला मजहब का,

मै गुजर बैठा तभी उधर से,

लड़ते देखा तो पुछा क्यूँ लड़ते हो,

बोले बताओ अन्दर कौन है बसता,

मैंने कहा देखो हम सब इन्सां,

न कोई हिन्दू न कोई मुसल्मां,

हमारे अन्दर एक ही रचयिता,

चाहे कह लो उसे खुदा या ईसा,

मानो तो बस एक ही रहनुमा,

मै तो कहता उसे ऊपर वाला,

उस पल बच्चे दिए मुस्कुरा,

जैसे कह रहे हों मुझको पगला...
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

पगला मानुष

कभी तन्हाई मे बैठ के सोचो.. क्या हम पगले नहीं हैं.. कभी कुछ तो कभी कुछ करते हैं... कोई निश्चितता तो है ही नहीं जीवन मे.. तो हम भी तो एक पगले मानुष ही हैं...

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

किस पल मे मै हंस बैठूं,
न जाने किस पल  रो जाऊं.
किस पल को न जाने जी लूं,
न जाने किस पल मर जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो हो सकता हूँ सरल सा,
न जाने किस पल मै अड़ जाऊं.
कभी तो बह चलूँ पवन सा,
न जाने किस पल फंस जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो लड़ बैठूं अजेय सा,
न जाने किस पल डर जाऊं.
कभी तो वीरों सा गरजूं मै,
न जाने किस पल सहम जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

चलता रहूँ कभी तो हर पल,
न जाने किस पल थक जाऊं.
कभी तो काँटों पे दौडूँ मै,
न जाने किस पल फूलों से कट जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो हूँ उन्मुक्त गगन सा,
न जाने किस पल मिटटी बन जाऊं.
कभी तो हूँ मै विशाल सागर सा,
न जाने किस पल ओझल हो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

उडूं कभी एक स्वछंद  पंछी सा,
कभी पिजरे मे बंध जाऊं.
कभी जगा दूं इस दुनिया को,
कभी जगा के खुद सो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

सुख बांटू कभी जहां को,
कभी दुःख मे खुद खो जाऊं.
कभी अकेलों का साथी हूँ,
कभी भीड़ मे तन्हा हो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो बढ़ चलूँ समंदर सा,
कभी ताल सा थाम जाऊं,
कभी तो मै इन्द्रधनुष हूँ,
कभी अमावस सा बेरंग हो जाऊं,

मै तो एक पगला मानुष,
ना जाने किस पल क्या कर जाऊं.

मै भी तो हूँ तुम सब जैसा,
तुम भी पगले मै भी पगला,
मेरी तरह तुम भी अनजाने,
बस दिखाते हो खुद को सयाने.

तो आओ मेरे साथ मे गाओ,
दुनिया को तुम भी बतलाओ,
मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

न जाने किस पल क्या कर जाऊं,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

आज भी उतना ही जीता हूँ मै

जिंदगी कुछ तो बदल जाती है आपके सपनों के टूटने के बाद.. आप जीते तो हो पर वो बात नहीं रह जाती.. सपने तोड़ने वाले को आपका डर रहता है,पर इस बात का नहीं की आपका क्या होगा, इस बात का की आपको कुछ हो गया तो उसको कितनी आत्मग्लानी होगी..

दिल मे चोटें भी हैं, मन मे कई मर्म भी,
इन सब घावों को, तेरी यादों से सीता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

मय पहले भी पीता था, आज भी प्याले छलकते हैं,
लेकिन पहले खुशियों थी, आज गम मे पीता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

रोता तो तब भी था, पर वो दर्द दर्द न देते थे,
अब दर्दों का तो पता नहीं, पर वेदनाओं की सरिता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

जीवन के पृष्ठों पे, हजारों सपनों के किस्से थे,
सपने तो बह गए, अब एक दर्द भरी कविता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

मेरी फिकर नहीं तुझको, डर है अपने अंतर्मन की,
मत डर चोटिल ही सही, आज भी वही चीता हूँ मै,
तो तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....
बुधवार, 7 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

क्यूँ बोलूं.

खामोशियों मे कभी चीखने का मन होता है बहुत, पर फिर मन सोचने लगता है की क्या फायदा चीख के.. लोग मिलते हैं तो पूरे मन की व्यथाएं, खुशियाँ सब कुछ बोल देने का मन करता है.. पर फिर सोचता हूँ की आखिर क्या बोलूं और क्यूँ बोलूं... तो इस रचना मे जो दो पंक्तियाँ लिखी हैं हर भाग मे, उनका अर्थ मेरे लिए तो बहुत बड़ा और गहरा है.. आशा है की आप भी उसे पकड़ लोगे...


जीवन की कठिन राहों पे,
सफ़र तो अकेले ही करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


यादें तो आनी ही हैं,
उनमे ही जीवन कटना है,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


चिंतन करने की क्यूँ सोचूं,
होनी को तो होना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


कर्तव्यों की आढ़ मैं,
वादों को तो टूटना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


सपने तो दिखते ही हैं,
पर रिश्तों को भी तो जीना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


ख्वाहिशें तो काम है चेतन का,
और उसको तो वो करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


जीवन सिर्फ जीता ही तो नहीं,
एक दिन तो उसको भी मरना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


गलतियां तो हुई है बहुत सी,
पर पीछे जाना तो होगा नहीं,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


खामोश भी रहा नहीं जाता,
पर दर्दों को भी कोई सुनता नहीं,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं......

खो चुका हूँ मै..

मधुशाला के प्यालों मे, बिखरे सपनों के टुकड़ों मे,
मय मे डूबा हुआ कहीं पे, बहुत तन्हा हो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

भीड़ मै भी अकेला सा, यादों मे डूबा हर पल,
ख्वाहिशों मे लुटा कहीं पे, बहुत रो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

कभी हँसते हुए दुनिया को हंसाता था संग मे,
आज गम के दरिया मे, हंसी को डुबो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

पुष्पों की सुगंध को, पंखुड़ियों की कोमलता को,
उपवन के रंगों को भूल के, काँटों को संजो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै.......

दिल खामोश है, दिमाग कुछ परेशां सा हर पल,
नींद आती नहीं अब, शायद बहुत सो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

पराई सड़क..

एक एहसास है मेरे मन का, किसी एक रास्ते को खो देने का दर्द, वो रास्ता जिससे गुजरने मे कभी मुझे दिन भर की खुशियाँ एक पल मे ही मिल जाती थी.. पर आज वो ही सड़क पता नहीं क्यूँ एकदम अजनबी सी है... कदम तो अब भी उधर मुड़ते हैं पर एक अजीब से डर के साथ.. डर उस सड़क के खो जाने का.. उस सड़क की छाँव के खो जाने का.. मंजिल मे न पहुँच पाने का...

मन मे एक मायूसी सी आज फिर छाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

चलता था किसी भी राह पे, कदम खुद मुड़ जाते थे,
उसकी गलियों से गुजरने को, बहाने हर पल बनाते थे.
पर आज उन राहों पे सिर्फ और सिर्फ तन्हाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

दिख जाये बस झलक उसकी, आरजू हमेशा होती थी,
चेहरा जिधर भी होता, नजरें उसको कभी न खोती थी,
पर आज आँखों पे सिर्फ उसकी अधूरी परछाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

बहुत दूर जा चुकी वो, पर अक्स अब भी मेरे पास है,
यादों को भुला भी दूं, तो मन मे उसका एहसास है,
पर उसको सोचने मे भी तो अब खुद की ही रुसवाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

आज भी गुजरता हूँ उन्ही राहों से, तलाशते हुए उसको,
थक सा गया हूँ बेरुखी से, दर्द देता हूँ अब खुद को,
पर खो चुका हूँ उसे मै अब यही मेरी सच्चाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

इस राह के आखिर मे सिर्फ एक अँधेरी खाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

खडंजा..

क्या आपको याद हैं वो दिन जब ये चमकती डामर की सड़कों के बदले वो उबड़ खाबड़ खडंजे हुआ करते थे... जिंदगी कुछ अलग सी हुआ करती थी... तो यहाँ पे मैंने कुछ पुरानी जिंदगी को खडंजे से जोड़ते हुए नयी जिंदगी से तुलना करने का एक छोटा सा प्रयास किया है...

ईंट पत्थर से बना, धुल मिटटी सी सना,
फिर भी अच्छा सा लगता था वो खडंजा,
उबड़ खाबड़ सा, और कहीं पे कुछ समतल सा,
डगमगा के कहीं हलके से संभलता था खडंजा.
किनारे पे चूरन की दुकान,और इमली का ठेला,
कुछ कड़वा और खट्टा सा भी लगता था खडंजा.
ठन्डे पानी का वो मटका छाँव पे पेड़ के नीचे कहीं,
आत्मा को तृप्ति मन को शांत करता था खडंजा.
आज पता नहीं कहाँ खो गया है वो रास्ता,
चमकती सी सड़क दिखती तो है समतल सी,
सुनी सी जिंदगी शांत सी चलने लगी है,
मगर चमकती हुई सी कुछ चुभती है सड़क.
वो खट्टी कडवी राहें भी दिखती नहीं,
वो मटके भी कहीं मशीन मे बदले से दिखते हैं,
बस चलते से जाते हैं कदम बिना हलचल के,
मुझको तो अब भी याद आता है बस वो खडंजा....