रविवार, 18 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक अधुरा सा लेख और एक सवाल.... जवाब आप दो..

कभी रात के अंधेरों मे तन्हाई से गुजरते हुए मन मे कई बार ये ख्याल सा आया की ये जीवन है क्या.. और क्यूँ इतना आशान्वित हैं लोग इसको लेके. जीवन तो इतने कष्ट देता है सबको, हाँ खुशियाँ भी देता है जरुर. और मौत को देखिये शांत सी पड़ी हुई सुकून देती हुई. फिर याद आया अपना एक सफ़र लखनऊ से नैनीताल का. रात्री करीब १ बजे मन मे पता नहीं क्या ख्याल आया की मे ट्रेन के दरवाजे को खोल के वहीँ पे बैठ गया. शांत सी लगने वाली हवा के थपेड़े बहुत जोर जोर से लग रहे थे, छोटी लाइन की गाडी थी तो कूदा कूदा के ऐसा एहसास दिला रही थी की मानो किसी बैलगाड़ी मे बैठा हुआ हूँ. इन सभी स्थितियों को सँभालते हुए स्वयं को स्थिर किया तो एक अनंत सुनसान ना जाने कहाँ तक फैली हुई धरती थी, कहीं कोई रौशनी नहीं, कहीं कोई आबादी नहीं, तो उस वक़्त लगा की काश जिंदगी ऐसी ही होती... शांत, विशाल सी, फैली हुई सी, चित्त कुछ शुन्य सा होके वहीँ पे खो सा गया और पता नहीं एक पल मे ना जाने कहाँ कहाँ घूम आया. पर पता नहीं क्यूँ कुछ देर मे ही थकान सी होने लगी और मन मे इच्छा हुई की चलो उठते हैं यहाँ से कुछ देर के लिए, मित्रों को जगाते हैं और अगले प्लेटफ़ॉर्म पे चाय का लुत्फ़ लेते हैं. पीलीभीत नाम का प्लेटफ़ॉर्म आया,  ट्रेन से उतर के कुल्हड़ वाली चाय ली, सच पूछिए तो ट्रेन के सफ़र मे जो कुल्हड़ की चाय का मजा हमारे भूतपूर्व मंत्री जी ने दे दिया उसका जितना भी धन्यवाद् किया जाए कम ही है. खैर चाय पीते हुए देखा उन प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए लोगों को, दौड़ते हुए खाली सीट और खचाखच भरे डिब्बों मे जगह ढूँढते हुए लोगों को, पैसा और रोटी मांगते बच्चों, औरतों और अपाहिजों को, चाय चाय चिल्लाते चाय वाले, कहीं प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए, बेंच पे शांत से किसी ओर निहारते हुए कुछ लोगों को, मगर सिर्फ देखा ही कुछ सोचा नहीं. ट्रेन का होर्न बजा और फिर से चढ़ बैठा मै अपनी उसी जगह पे... पर अब वही शांत सी जमीन मे वो मजा नहीं रहा था तो मैंने सोचा की क्यूँ अब क्या हुआ....तब लगा की हाँ जीवन को तो मैंने अभी ही देखा वो लोग वो भीड़ वो अलग अलग से चेहरे वो खुशियाँ वो गम ... लेकिन कुछ समझ सा नहीं आया की आखिर ये सब क्यूँ लगा, क्यूँ इतनी विरोधात्मक सोच.... क्या आप बता पायेंगे की क्यूँ...