शनिवार, 26 सितंबर 2009 | By: हिमांशु पन्त

जीवनपथ

मेरे मन मे सदा से जीवन को ले के अजीब से विचार और फिर कुछ प्रश्न घूमते रहते हैं... उन्ही को कुछ पंक्तिबद्ध करने की कोशिश है मेरी ये रचना...

जीवनपथ पर बस चलता ही रहा,
जो पथ दिखा बस मुड़ता ही रहा,
कभी सोचा ही नही की कौन हूँ में,
आखिर कहाँ क्या अस्तित्व है मेरा,
की मै भी तो उसी भीड़ का हिस्सा हूँ,
जिसे मै अक्सर खुद भीड़ कहता हूँ,
की मेरे भी तो वही सब कर्तव्य हैं,
जिनको मै अक्सर भीड़ में ढूंढता हूँ,

पर क्या में वो हूँ जो तुम्हे देखना चाहता हूँ ?

नही मै वो नही मै तो बस खुद को छलता हूँ
बस तुम मे अपने मन चाहा देखना चाहता हूँ,
ख़ुद मे झांके बिना तुम मे सब ढूँढना चाहता हूँ.

क्या मै वो हूँ जो वास्तव में होना चाहता हूँ,
क्या मै सही जी रहा हूँ, या बस जी रहा हूँ,
बस एक निरुत्तर पंथी की तरह चल रहा हूँ.
रविवार, 26 अप्रैल 2009 | By: हिमांशु पन्त

बंजारा जीवन..

जिंदगी से ख़ुशी की तलाश में घूमता एक बंजारा हूँ मै,
खुशियाँ हैं तो बहुत जिंदगी में फ़िर भी कम लगती हैं.
वो कहते हैं की क्यूँ देखते हो सपने जागती आंखों से,
पर आंखों में इतने सपने हैं की जिंदगी भी कम लगती है.
रात का इंतज़ार तो अब होता नही इस बेसब्र दिल को,
इसलिए जागती आंखों में ही सपनों को ढो लिया करते हैं.
वैसे ये जिंदगी छोटी तो नही अगर हर पल को जिया जाए,
मगर कट जाता है हर पल इसी सोच में की अगले पल क्या किया जाए...

पापा..

माँ तो हमेशा से हमारे देश क्या पूरे विश्व मे एक महान दर्जा रखती है.. पर पाता नहीं क्यूँ कभी पिता को शायद हम बहुत प्यार तो करते हैं और इज्जत भी देते हैं.. पर दिखा नहीं पाते.. तो बस उन्ही पिताओं के लिए समर्पित है मेरी एक ये रचना...


वो एक शख्स  जो हमेशा तकलीफें  झेलता है,
अपनी आरजुओं को हमारी इच्छाओं पे कुर्बान करता है,
फिर भी न जाने क्यूँ उसका नाम कोई नही लेता,
जिंदगी पूरी अपने परिवार के लिए जो जीता है,
दर्द में और गम में भी वो हमारी खुशियों को देखता है,
ख़ुद को हो जितनी तक्लिफ्फ़ पर हमे सारे आराम जो देता है,
फिर भी न जाने क्यूँ उसका नाम कोई नही लेता,
जो अपनी पूरी जिंदगी हमारे नाम कर देता है,
जिसे कुछ नही बस हमारी कामयाबी से प्यार है,
हमारी जिंदगी के लिए जो कुछ भी करने को तैयार है,
हमे ऊंचाई पे देखने के लिए जो हर पल बेकरार है,
ए पिता तुझको मेरी तरफ़ से हर बेटे का नमन और प्यार है....

एक अनोखी मोहब्बत


तकरीबन ६ साल पहले शायद १२ अगस्त की ही तारीख थी, रेडियो पे एक उदघोसना सुनी की १५ अगस्त को देश को समर्पित कुछ रचनाएं आमंत्रित हैं श्रोताओं से.. बस लिखने का तो शौक था ही पर कुछ उट पटांग सा ही लिखा था अब तक.. तो सोचा क्यूँ न मे भी भेजूं कुछ लिख के.. बस क्या था उठा ली अपनी डाइरी, और भावनाएं जो देश के प्रति उस समय तक उड़ेल सकता था उड़ेल दी.. और साइबर कैफे मे जा के एक इ-मेल कर दिया उस रेडियो वाले एड्रेस पे.. बस क्या था मे शायद बता नहीं सकता कितना हर्ष अनुभव किया था मैंने जब रेडियो मे चुनी हुई ३ रचनाओं मे मेरी रचना को सर्वोतम घोषित किया गया.. बस उसके बाद तो एक के बाद एक कई रचनायें कर डाली...तो यही है मेरी वो कविता जिसने कहीं न कहीं मुझे आगे लिखने को प्रोत्साहित किया....



एक अनोखी मोहब्बत का नज़ारा हमें देखने को मिला,
जमीं पे लहू से लिखा हुआ प्रेम पत्र पढने को मिला.

इस मोहब्बत में कीमती तोहफे नही सिर्फ़ जान दी गई,
इस खेल में  दुश्मनों  पर  बंदूकें तान दी गई.

महबूबा तो एक थी ,मगर आशिक अनेक थे,
सब अलग-२ होते हुए भी इस प्यार के खेल में एक थे.

हर आशिक एक दूसरे की जान बचाना चाहता था,
मरे या जिए हर आशिक इस खेल में सफल माना जाता था.

ये मोहब्बत एक अनोखी मोहब्बत थी,
जिसमे आशिक था फौजी और महबूबा मात्रभूमि  थी.

इस खेल को देख हर देशवासी का जी भर आता ,
इसे देख बच्चा बच्चा भी कह उठता जय जवान , जय भारत माता.