बुधवार, 29 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

यहाँ कोयले से अरबों की दावत हो चुकी है

लबों को सीने की तो अब आदत हो चुकी है,
पेट भरने की जुस्तजू सियासत हो चुकी है,
उन लोगों को क्या इल्जाम दें जो की गैर हैं,
यहाँ तो अपनों की ही खिलाफत हो चुकी है।

बेईमानी तो अपनों की इबादत हो चुकी है,
चूल्हा जलाना भी अब आफत हो चुकी है,
रसोई गैस के दामों को रोने वालों समझो,
यहाँ कोयले से अरबों की दावत हो चुकी है।

सफ़ेद कमीज

पगडण्डी किनारे कुछ निहारता सा चला,

देखा जो कुछ जहन में उतारता सा चला,

मोटी रोटियाँ सिंक रही थी कहीं इंटों पे,

तो कहीं कुछ बीड़ियाँ सुलग रही थी,

मगर बड़े खुश थे ये जैसे कोई दर्द नहीं,

जहाँ से अनजान से वो मस्त से चेहरे,

कहीं बर्तन पे चावल भी उबल रहे थे,

तो किसी रोटी पर प्याज कटा रखा था,

मन किया की मै भी थोडा चख के देखूं,

मगर मेरी कमीज कुछ ज्यादा सफ़ेद थी.

रविवार, 26 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

ये इंसानियत मगरूर होती हैं

दुआएं अक्सर मशगुल होती हैं,

कभी खारिज कभी कुबूल होती हैं।


इनको माँगना मेरी आदत नहीं,

किस्मतें भी कभी मजबूर होती हैं।


गुस्ताखी अक्सर होती हैं हमसे,

माफियाँ भी यहाँ पे जरुर होती हैं।


हादसों पे अपना कोई काबू नहीं,

तेरे जाब्ता जिंदगी मंजूर होती हैं।


शायद तेरा एहसान हो मुझ पे,

ये इंसानियत मगरूर होती हैं।

शनिवार, 25 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

समय - हाइकु

बलवान है,

प्रचंड है परम,

समय है ये।


ये है अजेय,

है अमर अजर,

प्रलय है ये।


सजग बड़ा,

इसे हर खबर,

प्रहरी है ये।


समझो इसे,

है अजब गजब,

समय है ये।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

दिल से निकले कुछ हाइकु।

तुमको ढूंढा,

हर किसी जगह,

मिले मुझ में.


मिला तुमसे,

तो लगा कुछ ऐसा,

की हो अपने.


एहसास है,

या की कोई सपना,

तेरा ये साथ.


डूब न जाऊं,

इस समंदर में,

उफ़ ये नैना.


हर पल है,

तेरे संग ये मन,

रहूँ या नहीं.

अरे हाँ तुम ही तो थी

दिल के झरोखे से कुछ आह्ट सी सुनाई दी,

झाँक के देखा तो कुछ भी तो न था वहां पर,

इक पल को कुछ ठिठका और फिर ठहरा,

शायद वो तुम ही थी.. अरे हाँ तुम ही तो थी ,

तुम मेरे चेतन से निकलने वाली आवाज,

फिर शायद आज कुछ लिखवाना था तुमको,

हाँ याद आया तुम सुबह से खटखटा रही थी,

सुबह अखबार की खबरों के साथ तो उठी थी,

पर आज उनको लिखने का मन नहीं करता,

क्या करना तुम को उन सब जग व्यथाओं से,

लिख देगा कोई न कोई आज भी कहीं उनको,

तुम तब बताना जब उनसे लड़ने का मन हो,

तुम तब झकझोरना जब असहनीय सा लगे,

तब शायद कहीं जोश में आ के कुछ लिख दूं।

सोमवार, 20 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

हाइकु-जज्बात

मन की बात,
बने दिन भी रात,
हाय जज्बात.

ईद मुबारक - हाइकु

ईद का चाँद,
सेंवई की मिठास,
हो मुबारक।

रविवार, 19 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

हाइकु - फिर बदरा

घने बदरा,
प्यासी भयी ये धरा,
खेल गजब।

हवा का रुख,
लगे बदला कुछ,
बरस अब।

काला हुआ वो,
जो नीला था आकाश,
अब देर क्यूँ ?
शुक्रवार, 17 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

कुछ हाइकु---बदरा रे।

कहाँ हो तुम,
अरे बदरा काले,
देर हो चली।
..........................
गरजता है,
पर बरसे नहीं,
है बेईमान।
..........................
बेचैन मन,
सुखी प्यासी धरती,
 है इन्तेजार।