सोमवार, 29 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

चक्रव्यूह - एक उलझन जहन की...

पुष्प की सुगंध को सराहूं या उसकी सुन्दरता की तारीफ़ करूं..
न जाने भ्रमर को क्या लुभाता है हर एक पुष्प पे मंडराने को..

अचेत भ्रमित सा है कुछ मेरा ये अंतर्मन क्या वो भ्रमर ही है..
जो पुष्प को गर्वित होते हुए इठलाने का अवसर दिया करता है..
या पुष्प है जो भ्रमर को जीने का एक अलग नजरिया देता है..
या नहीं शायद दोनों ही एक दुसरे के बिना कुछ अधूरे से हैं..

बिना पुष्प भ्रमर की दीवानगी का कहाँ किसी को पता चलता..
भ्रमर न होता तो पुष्प की सुन्दरता का व्यख्यान कौन करता..
शायद यही प्रक्रति है किसी भी जीवनपंथी की और जीवन की..
जीवन पंथी के बिना अधुरा है पंथी जीवन के बिना कुछ नहीं..

फिर भी न जाने क्यूँ हर एक जीवन एक पुष्प की तरह है..
और चलने वाला जीवनपंथी एक भ्रमर का कुछ द्योतक सा है..
न जाने क्यूँ पंथी ही हर घड़ी जीवन के पास ही मंडराता है..
बिना सोचे की उसके बिना तो जीवन का कोई महत्व ही नहीं..

कुछ अजीब सा चक्रव्यूह सजा है पुष्प और जीवन दोनों ही का..
भ्रमर भी फंसा है उसमे और पंथी भी पूर्णतयः उलझा सा हुआ..
इस जाल से छुट सा जाने का एक भय सा है इन दोनों में ही..
पुष्प और जीवन दोनों ही अट्टहास करते होंगे शायद इन पे..

फिर भी प्रफुल्लित हैं भ्रमर और पंथी बिना खुद की पहचान के..
जानते हुए की उस मृत्यु के पल सिर्फ तन्हाई ही साथ में होगी..