गुरुवार, 1 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

खडंजा..

क्या आपको याद हैं वो दिन जब ये चमकती डामर की सड़कों के बदले वो उबड़ खाबड़ खडंजे हुआ करते थे... जिंदगी कुछ अलग सी हुआ करती थी... तो यहाँ पे मैंने कुछ पुरानी जिंदगी को खडंजे से जोड़ते हुए नयी जिंदगी से तुलना करने का एक छोटा सा प्रयास किया है...

ईंट पत्थर से बना, धुल मिटटी सी सना,
फिर भी अच्छा सा लगता था वो खडंजा,
उबड़ खाबड़ सा, और कहीं पे कुछ समतल सा,
डगमगा के कहीं हलके से संभलता था खडंजा.
किनारे पे चूरन की दुकान,और इमली का ठेला,
कुछ कड़वा और खट्टा सा भी लगता था खडंजा.
ठन्डे पानी का वो मटका छाँव पे पेड़ के नीचे कहीं,
आत्मा को तृप्ति मन को शांत करता था खडंजा.
आज पता नहीं कहाँ खो गया है वो रास्ता,
चमकती सी सड़क दिखती तो है समतल सी,
सुनी सी जिंदगी शांत सी चलने लगी है,
मगर चमकती हुई सी कुछ चुभती है सड़क.
वो खट्टी कडवी राहें भी दिखती नहीं,
वो मटके भी कहीं मशीन मे बदले से दिखते हैं,
बस चलते से जाते हैं कदम बिना हलचल के,
मुझको तो अब भी याद आता है बस वो खडंजा....