सोमवार, 3 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

बेलगाम वक़्त

सभी को पता है की वक़्त तो बस भागता ही है.. और किसी के रोके रुकता नहीं फिर भी एक कोशिश रहती है कई बार वक़्त पे विजय पाने की तो उसी कोशिश को अभिव्यक्त कर दिया है इस रचना मे....

कोशिश करता और फिर थकता हूँ,
हर पल थामने को लगा रहता हूँ,
पर मेरी उम्मीदों से ज्यादा सख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

बचपन मे भी इसको पकड़ना चाहा,
जवानी मे भी इसको जकड़ना चाहा,
पर हमेशा से दिल मे डालता लख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

गाँव मे कुछ ठहरा सा दिख जाता,
पर शहरों मे बस भागता सा जाता,
न जाने कैसा सफ़र करता कम्भक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

वादों की ना है कुछ परवाह इसको,
ना ही कसमों से रहे कुछ मतलब,
बस अपने धुन मे चले है मदमस्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

एक उलझन है मन मे इसको ले के,
जीवन बढाता या घटाता इसका संग,
साथ मे तो बहा ले जाता है हर रक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

अति बलवान और कभी अति जटिल,
कभी चपल रहे और कभी शिथिल,
हर युग हर वेश मे ये रहता सशक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.