बुधवार, 15 सितंबर 2010 | By: हिमांशु पन्त

हिंदी दिवस : लेखक, कवि और टिपण्णी

हिंदी दिवस... बस सब जागरूक हो उठते हैं खास तौर से लेखक और कवि... अच्छा है बहुत अच्छी बात है होना भी चाहिए... पर ये दिवस तो पहले से ही मुझे समझ नहीं आते... माता का पिता का भाई का बहन का दादा का दादी का सबके दिवस घोसित कर दिए गए हैं.... सुबह उठते ही पता नहीं फोन मे कौन सा बधाई सन्देश हमे मुह चिढाने को तैयार हो कोई भरोसा ही नहीं... मुझे तो लगता है कुछ दिनों मे पालतु कुत्ता, बिल्ली, गाय, भेंस, चूहा, खरगोश और पता नहीं क्या क्या सारे दिवस बन जायेंगे... खैर मुझे क्या करना दिमाग लगा के, दिमाग वैसे ही कम है खर्च करने पे बढ़ता तो नहीं सर दर्द जरुर होने लगता है. खैर मै इस लेख मै हिंदी की टांग तोड़ने वाले लोगों की बुराई करने वाले मुझ जैसे लेखकों पे ही टिपण्णी करने जा रहा हूँ. क्षमा करियेगा ना भी करिए चलेगा, कौन सा आप लोगों को मेरा पता ठिकाना मालूम है.


हाँ तो मै ये कहा रहा था ये जागरूकता बड़ी अच्छी लगती है मुझे जो किसी किसी दिवस पर लोगों के अन्दर धर कर जाती है जैसे हिंदी दिवस पर कुछ कवियों और लेखकों के ह्रदय मे. और ऐसा होते ही उनकी लेखनी चल पड़ती है टिप्पणियाँ और कसीदें लिखने पूरे समाज पे, ये कौन सा हिंदी दिवस मना रहे हो भाई?? हिंदी के इतिहास भूगोल की चर्चा कर लेते एक बार तो कम से कम लोगों को कुछ ज्ञान मिलता पर नहीं अपनी लेखनी की भड़ास निकालने का अवसर तो भाईसाहब लोगों को दिवसों पे ही मिलता है. सीखा के क्या घंटा चैन मिलेगा आत्मा को. सही भी है अपने बच्चों को तो what is your name पे जवाब देना सिखा सिखा के वैसे ही इतनी थकन लग जाती होगी पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी समझना बोलना खाना पीना रहना ओढना सीखा लें फिर बाकियों को बाकी चीजें सिखायेंगे. भैय्या नौजवान पीढ़ी है आप ही लोगों से बनी है आप ही लोगों की सिखाई हुई है. अब बड़े बड़े सी.ई.ओ. लोगों के साथ मंत्र्नाएं और नौकरी करनी है तो अंग्रेजी तो रक्त मे बसानी पड़ेगी. अपने घर के सम्बन्ध मे और अपने संभंध मे ये बातें पसंद आती हैं हम लोगों को पर सामने वाला अगर कुछ बोल भर दे अंग्रेजी का २ ४ शब्द तो बस अगले दिन उस पर कविता और लेख सब लिख दोगे.  तो ये आडम्बर क्यूँ ?? सिर्फ कागजों पे अथवा अपने ब्लॉग मे हिंदी लिख के आप हिंदी का कौन सा सम्मान कर ले रहे हो?? सिर्फ दूसरों को टिपण्णी की विषयवस्तु बना के हिंदी का कौन सा सम्मान कर ले रहे हो?? और अगर आप सवाल उठाते हो तो हिंदी के बीच मे सिर्फ अंग्रेजी के इस्तेमाल पे क्यूँ?? कई सारे सब्द हम अपनी भाषा मे प्रयोग कर रहे हैं जो की उर्दू के फारसी के अरबी के और बल्कि कई अन्य भाषाओं के हैं.. तो सवाल सिर्फ अंग्रेजी को बीच मे घुसेड़ने पे क्यूँ... अरे भाई बंधुओं आप लोग अति विद्वान हैं, ब्लॉग पे हैं आजकल बहुत से नवयुवक ब्लॉग पढ़ रहे हैं पढ़ते हैं कविताओं और लेखों का भी शौक रखते हैं, आप उनपे टिपण्णी करते हो वो पढ़ते हैं और हँसते हैं उनको भी ये नहीं पता होता की ये सब उन्ही के लिए है. तो जनाब इससे बेहतर की आप कुछ ऐसा लिखें जिसे पढ़ के हिंदी के विषय मे ज्यादा ज्ञान मिले हमे और उन्हें. चिढाना, टिपण्णी करना, मजाक उडाना बेशक एक कला है कवि और लेखकों की...... पर अपनी मातृभाषा और अपनी युवा पीढ़ी जिसको आप कुछ सीखा सकते हैं उनपे इस कला का इस्तेमाल करना ???? सही है क्या???
                         मुझे क्षमा करियेगा मै एक अदना सा इन्सां... ज्यादा ज्ञान नहीं इसीलिए अज्ञानियों की तरह कुछ भी लिख देता हूँ पर अगर इसके सार को और मेरी मनोवेदना को समझ पाएं हो तो अगले हिंदी दिवस पे कुछ बेहतर प्रयास करियेगा. मुझे भी कुछ अच्छा सिखायिएगा म भी शायद उसी समाज का एक अभिन्न हिस्सा हूँ जिसपे आप टिपण्णी करते हैं और खुद भी जिसका हिस्सा हैं आप.............



मुझे बहुत शर्म आती है की हमे अपनी मात्र भाषा के लिए एक विशेष दिवस मनाना पड़ रहा है..और हमारे देश के लेखक और कवियों का इसमें कुछ विशेष योगदान है..मुझे नहीं पता की अन्य देशों मे इस तरह का दिवस मनाया जाता है या नहीं पर मेरे देश मे ये नहीं होना चाहिए था.. इस दिवस का मै तो बहिष्कार करता हूँ...

जीवनसार

जीवनपथ की ये डगर,
जटिल दुर्गम सा सफ़र,
छुटते वक़्त की सवारी,
और सपनों की मंजिल.

हर कदम एक पड़ाव,
हर मोड़ एक ठहराव,
वक़्त की भागती सुइयां,
और गुमता सा गलियारा.

विजयी रहने की धधक,
जीवित रहने की ललक,
अजेय काल की लपक,
और भक्षक दिखता जग.

कहीं पर छुपी जीत,
कहीं पर छुपी हार,
यही रस जीवन का,
और यही है जीवनसार.
सोमवार, 13 सितंबर 2010 | By: हिमांशु पन्त

परिवर्तन

मन के उफान मे उठती ज्वाला,
व उसमे भभक रहा मेरा मै,

आक्रोश से निकलती एक धधक,
व उसमे धधक रहा मेरा मै,

एक परिवर्तित सा चेतन है कुछ,
व उसमे भटक रहा मेरा मै,

हाँ यह परिवर्तन है जीव का मेरे,
धरा ये भस्म समर्पित है तुझे,

मिला खुद मे मिटटी बना दे,
या कुछ कर हो जावे तर्पण मेरा ..
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010 | By: हिमांशु पन्त

हे शिव

हे शिव तेरे चरणों पे मेरा हर कर्म अर्पण,

कु बना दे या करा दे सु अब सब तुझ पर,

हे देव जीव बनाता व सब कराता भी तू ही,
...
तो अब सब तेरा धूमिल कर या कर तर्पण.

बुधवार, 14 जुलाई 2010 | By: हिमांशु पन्त

धधक

प्रचंड सा दर्शित होता जग, क्यूँ दुश्मन सा ललकार रहा,
खोया हुआ तेरा ये आवेश, क्यूँ मूक बन सब निहार रहा.
धधक रही मन मे ज्वाला, क्यूँ फिर भी चित्त खामोश है,
क्यूँ कल का ये वीर पुरुष, बिना युद्ध किये ही हार रहा.

गहराता ये घनघोर धुआं, क्यूँ आज उस को डरा रहा,
वेग पुरुषत्व का था जो, आज क्यूँ कीट सा घबरा रहा,
आक्रोश से भरा चेतन, क्यूँ फिर भुजाएं फड़कती नहीं,
क्यूँ कल का वो देवपुरुष, आज अंधकार से चकरा रहा.

कहाँ गए वो राम कृष्ण, और कहाँ गए वो ब्रह्मा शिव,
देव थे अगर तुम बोलो, क्यूँ कलयुग मे जग को छोड़ा,
क्यूँ नहीं उठता आज भी, कोई अस्त्र काल के नाश को,
या सिर्फ तुम अपनी झूठी गाथा लिखवा के चले गए?? 
रविवार, 9 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

याद है जख्मों पे तू अक्सर मरहम लगाती थी.....

लीजिये  जनता... एक रचना.. बैठे बैठे बस बन पड़ी, ज्यादा कुछ सोचा नहीं और ना ही ज्यादा दिमाग लगाया... शब्द ढूंढे, कड़ियाँ ढूंढी उनको जोड़ा और लिख दिया...


तेरी यादों को जब तलक सोचता रहा, 
तेरे अक्स को तब तलक खोजता रहा.

पहले भी तो तन्हा ही रहा करता था,
पर तेरे जाने पे क्यु तुझे कोसता रहा.

अक्सर जिंदगी मे ऐसा होता ही रहा है,
तो तेरे रूठने पे क्यूँ मन मसोसता रहा.

वक़्त की जंजीर तो होती हैं जकडने को,
तो क्यूँ हर बार कड़ियों को तोड़ता रहा.

जितना पास आया तेरे तू दूर जाती रही,
फिर भी तेरी ओर क्यूँ आखिर दौड़ता रहा.

तेरे मिलने की कोई भी उम्मीद ना बची थी,
फिर भी जाने क्यूँ हर दर तुझे खोजता रहा.

याद था जख्मों पे अक्सर मरहम लगाती थी,
तो तेरे आने की आरजू मे जख्म खोदता रहा
.
गुरुवार, 6 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

रोज की एक कविता....आखिर कैसी

मै कुछ दिनों से खुद को ढूंढ रहा हूँ.. हाँ शायद बेवकूफी है पर क्या करूं मै हूँ ही जरा सनकी व्यक्तित्व,, बस धुन लग जाती है कोई तो उसी को पकड़ के बैठ जाता हूँ.. कोई नहीं इसका अपना अलग ही मजा है.. लिखना अच्छा लगता था बहुत पहले से, लिखने लगा.. कुछ शायरी २ लाइन की, फिर कुछ कविता और फिर अपने ही बारे मे... एक दिन आया की सोचा बस बहुत हुआ लिखता हूँ तो लेखन मे स्थिरता लायी जाये.. ले आया कविता लिखनी शुरू कर दी.... रोज की एक कविता.. फिर सोचा ग़जल लिख दूं.. तो आप लोगों की आँखों के सामने  ३- ४ दिन लगातार ३-४ ग़जलें भी लिख डाली.. अब २ - ४ दिन से मन कर रहा है अपने लिखने पे लिखने का.. तो अब वो लिख रहा हूँ... ना जाने कल क्या सोच लूँगा, पर हाँ लिखूंगा अब हमेशा.. वक़्त जब तक साथ देगा और सांसें जब तक साथ देंगी.. युवा हूँ पर घर का छोटा हूँ तो थोडा सा बचपना है.. सीख रहा हूँ.. माफ़ करियेगा गलतियों को..

एक ताल,
या
एक नदी,
या फिर
एक बहती
सरिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

खुला आसमान,
या
असीमित जमीं,
या फिर
कोई जीवन
संहिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

महकता उपवन,
या
कोमल कोपल
या फिर
कोई सुन्दर
वनिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

उलझा जीवन
या
नटखट बचपन
या फिर
कोई युवा
अजिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.
बुधवार, 5 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

फिर एक कविता.....

कविता पे एक कविता..... क्या क्या लिख जाते हैं हम लोग कविता मे... या कविता होती कैसी है..... या कैसे बनती है... वही लिख दिया.... फिर एक कविता.....


उन दर्दों को फिर आज सुनाने का दिल करता है,
आज फिर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.

बारिश की बूदें हों या वो बिजली की चमक,
बस फिर कुछ कह जाने को दिल करता है.
बादलों की गडगडाहट हवा की सरसराहट,
इन सबको आज आजमाने को दिल करता है.

इस मौसम को बस गुनगुनाने को दिल करता है,
आज फिर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.

वक़्त की सुइयों को और रिश्ते की डोरों को,
फिर से जग को समझाने को दिल करता है.
सारी भूली यादों को उन अनकहे जज्बातों को,
एक बार फ़िर से जी जाने को दिल करता है.

आंसु को आज फ़िर स्याही बनाने को दिल करता है,
आज फ़िर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.
मंगलवार, 4 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक दफा फिर

लीजिये फिर से आ गया मे अपने नए नए बने शौक को ले के.. हाँ जी पेश-ए-खिदमत है एक और ग़जल... एक दफा फिर..




एक दफा फिर हमे अपनों ने लूटा है,

एक दफा फिर आज ये दिल टूटा है.


दिल पे बहुत किया यकीं अब तक,

अब पता चला की ये दिल झूठा है.


कल तलक सोचा था उन को अपना,

आज फिर उसने मेरा सपना लूटा है.


याद भी उसे कर आखिर क्या करना,

अब तलक कहाँ उसने हमे पूछा है.


मैकदे मे इस ढब गुम चुका यारों,

जैसे पूरा जिस्म मदहोशी मे डूबा है.


वक़्त इस कदर हमसे खफा सा है,

लग रहा मेरा अक्स मुझसे रूठा है.
सोमवार, 3 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

बेलगाम वक़्त

सभी को पता है की वक़्त तो बस भागता ही है.. और किसी के रोके रुकता नहीं फिर भी एक कोशिश रहती है कई बार वक़्त पे विजय पाने की तो उसी कोशिश को अभिव्यक्त कर दिया है इस रचना मे....

कोशिश करता और फिर थकता हूँ,
हर पल थामने को लगा रहता हूँ,
पर मेरी उम्मीदों से ज्यादा सख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

बचपन मे भी इसको पकड़ना चाहा,
जवानी मे भी इसको जकड़ना चाहा,
पर हमेशा से दिल मे डालता लख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

गाँव मे कुछ ठहरा सा दिख जाता,
पर शहरों मे बस भागता सा जाता,
न जाने कैसा सफ़र करता कम्भक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

वादों की ना है कुछ परवाह इसको,
ना ही कसमों से रहे कुछ मतलब,
बस अपने धुन मे चले है मदमस्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

एक उलझन है मन मे इसको ले के,
जीवन बढाता या घटाता इसका संग,
साथ मे तो बहा ले जाता है हर रक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

अति बलवान और कभी अति जटिल,
कभी चपल रहे और कभी शिथिल,
हर युग हर वेश मे ये रहता सशक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.
रविवार, 2 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

भुल चुक माफ़... बस ऐसे ही लिख दिया.. क्या लिखूं?

लिखने का मन कर रहा था, कुछ सूझ ही नहीं रहा था... बहुत कोशिश की, कोशिश करते करते चिढ़ सी होने लगी... तो बस ऐसे ही कुछ अपनी सोच को ही लिख डाला की क्या लिखूं...  तो बस कुछ ऐसे ही है, माफ़ करियेगा..

कुछ कुछ सोचता हूँ,
फिर कलम उठाता हूँ,
और
फिर कुछ फाड़ता हूँ,
कुछ लिखने का मन है,
पर क्या लिखूं?

कई बातें मेरे मन मे,
कई अनकहे जज्बात,
और
बहुत सी बिखरी सोचें,
इनमे ही उलझ जाता हूँ,
अब क्या लिखूं ?

तेरी वफायें भी याद हैं,
तेरे धोखे भी साथ हैं,
और
वो उन दिनों का प्यार,
तो कैसे तुझे रुसवा करूं,
अब क्या लिखूं ?

अपने बचपन की बातें,
या लड़कपन के किस्से,
और
वो जवानी की बेरुखी,
किस वक़्त को बयां करूं,
अब क्या लिखूं ?

एक निराला सा गीत,
या एक रूमानी ग़जल,
और
दुनिया पे एक कविता,
इत्ता सब है लिखने को,
पर क्या लिखूं ?
शनिवार, 1 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

थाम के मेरा हाथ

बस ऐसे ही कुछ सोचा... कहीं पे एक चित्र देखा तो मन मे बस ये ही बोल उठ पड़े... शायद एक स्त्री जो अपने प्रेम के लिए किसी भी हद तक जा सकती है किसी भी परेशानी का सामना कर सकती है... उसी के नाम मेरी ये रचना..


कभी किन्ही अनजानी राहों पे,
कभी ऊँची नीची चट्टानों पे,
अगर कभी मै डगमगा जाऊं,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

समुन्दर की भयावह लहरों से,
आंधी के बलवान थपेड़ों से,
अगर कभी मै सहर जाऊं,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

गर्मी की चाहे लाख तपिश हो,
या बारिश भी रौद्र रूप मे,
मै उनमे भी चल जाऊँगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

ये जग चाहे लाख सताए,
दुनिया चाहे लाख डराए,
सब छोड़ मै तेरे संग आऊँगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

चाहे जैसा भी सफ़र  हो,
चाहे जितनी कठिन डगर हो,
हर कदम तेरे साथ रखूंगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.
शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

सूखे ह्रदय की प्यास

कुछ ग़ज़लों के बाद अब फिर से अपने पुराने ढर्रे पे लौट आया हूँ.. हाँ जी मेरे गीत मेरे दर्द.. असल मे जब आपके बहुत से बिखरे अरमान होते हैं तो उनको ना पा पाने का दर्द ही उन अरमानों को भुला देता है.. तकलीफें इतनी ज्यादा बढ़ जाती हैं की आप इच्छाओं को तो भुल ही जाते हो उन दर्दों के आगे....

मधुशाला की मेजों पे,
छलकते हुए कुछ गिलास,
बहके से चंद मायूस लोग,
और कुछ टूटी हुई आस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


यादों की परछाइयों से,
डरती हुई हर एक सांझ,
नित्य रात के अंधेरों मे,
घुटती हुई हर एक सांस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


मन बावरे की ख्वाहिसें,
फिर कुछ घबराते आभास,
मन के कई करुण गीत,
और मेरी खामोश आवाज,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


वक़्त के चलते पहिये,
कुछ छुटते हुए से हाथ,
दुखते हुए से कुछ घाव,
उनको गहराती तेरी याद,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.
बुधवार, 28 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

ख्वाहिश - एक और ग़जल

मुझे कुछ इस कदर नशा सा हो गया है ग़जल लिखने का की बस हाथ थमते ही नहीं... लीजिये पेश ए खिदमत है एक और ग़जल .. दिल के बेहद करीब.. :)

 
तुझ से मिलने की जब कभी भी ख्वाहिश की थी,

मजबूरियों ने तब कुछ रुकने की फरमाइश की थी.



इक दफा फिर से तेरी यादों ने रुलाया है मुझको,

रुक्सती के दिन भी तो अस्कों ने नुमाइश की थी.



अब भी तो सोचा करता हूँ अक्सर तेरे चेहरे को,

उस वक़्त भी तेरे इक दर्श की आजमाइश की थी.




मालुम था की तेरे दिल मे कोई जगह नहीं मेरी,

फिर भी सफ़र मे कुछ पल की गुंजाइश की थी.



आँखों मे अब तलक भी दिखता है अक्स तेरा,

तेरी नजरों ने मेरी आँखों मे ये जेबा'इश की थी.



तू ही बता कैसे छोडूं अब इस तन्हाई का साथ,

बिन तेरे इसके दम ही जीने की आराइश की थी.


कुछ कठिन लफ्जों के अर्थ:  


जेबा'इश - बसाना, स्थापित करना.
आराइश - सजावट
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक और ग़जल

एक और ग़जल फिर से पेश करना चाहूँगा.. अजब सा नशा है कुछ ग़जल लिखने का भी.. कोई भुल चुक हुई हो तो टिपण्णी के रूप मे जरुर उसे उभारें.. अभी बस सीखने की कोशिश भर कर रहा हूँ.. आप से अच्छा कौन आंकलन कर पायेगा... 



ज़ाब तेरी हाफिजाह का सह भी नहीं पाता,

पर तेरे ख्यालों बिना अब रह भी नहीं पाता.



सीना-ए-बिस्मिल गाहे गाहे इस कदर रोता है,

छुपाये ना छुपे क्या करूं अब कह भी नहीं पाता.



दिल-ए-कस्ता कुछ इस ढब मजरूह हो चुका,

दवा करो लाख ये आलम अब ढह भी नहीं पाता. 



आब-ए-तल्ख़ इस हद फना हो चुके निगाहों से,

जु-ए-दर्द  पर कतरा अश्क अब बह भी नहीं पाता.



कुल्ज़ुम-ए-गम मे इस अंदाज फंस चुका हूँ यारों,
 
कोसों निकल आया और अब सतह भी नहीं पाता. 


लीजिये जनाब कुछ कठिन लफ्जों के अर्थ :

अज़ाब - दुःख, चुभन, कचोट
हाफिजाह - यादें
सीना-ए-बिस्मिल - जख्मों भरा दिल
गाहे गाहे - कभी कभी
दिल-ए-कस्ता - घायल दिल
मजर्रुह - घावों से भरा
आब-ए-तल्ख़ - आँख के आंसू
जू-ए-दर्द - बेइन्तेहाँ दर्द
कुल्जुम-ए-गम - गम का सागर
रविवार, 25 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक ग़ज़ल

वैसे तो ग़ज़ल मे लिखता नहीं.. और ना ही मेरी इतनी औकात है.. पर फिर भी कुछ कचोटा सा मन आज किसी बात से, तो बस एक कोशिश भर कर दी... देखें कितना सफल हुआ हूँ....  



तेरे अहद-ए-तरब ने कुछ इस ढब अश्क बार किया,

मेरी खरोश से तो दहर भर ने भी अश्क बार किया.



कुछ अघ्लाब से आशना ने हम पे वासिक वार किया,

क़ल्ब तो रोया ही मगर पैकर ने भी अश्क बार किया.



दम-बा-दम तुने खवाबों को इस कदर तार तार किया,

दयार-ए-खुफ्तागां मे बंद नजर ने भी अश्क बार किया.



कुछ इस कदर हमने लम्हात-ए-याद-ए-यार किया,

मेरा दर्द अंगेज दीद हरेक पहर ने भी अश्क बार किया.



खामोशियों मे जब कभी बसर करने का काविश किया,

तेरा जिक्र सुझा कहीं तब हर दर ने भी अश्क बार किया.


 
वक़्त की हर एक सुई  कुछ  इस कदर तेरे दस्तों दे दी थी,

वापिस माँगा तो मेरे हरेक  सफ़र ने भी अश्क बार किया.

कुछ कठिन शब्दों के अर्थ..
 


अहद-ए-तरब - खुशनुमा वक़्त मे किये गए वादे
खरोश - चीखना या रोना
दहर - जमाना
अघ्लाब - इस कदर
आशना - मोहब्बत या कोई दिल के करीब
वासिक - कठोर
दयार-ए-खुफ्तागां - सोती हुई दुनिया
दस्तों - हाथों
काविश - सोचा

शनिवार, 24 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

कैसे अपनी बेइज्जती करा लें... आखिर हमे भी नाम कमाने का शौक है भाई..

नौकरी बजाने के ही एक चक्कर मे शहर से बाहर निकले और एक गाजीपुर नमक जिले मे जा पहुंचे. आयकर विभाग मे कुछ औडिट करनी थी तो वहीँ आयकर अधिकारी जी के सामने बैठे थे. साथ मे कोई एक सज्जन और थे कुछ नेता सरीखे या शायद ठेकेदार, अब ये नहीं बता सकता की समाज के या की किसी और चीज के. खैर जो भी थे थे बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व. उनकी एक बात ने बड़ा ही प्रभावित किया इतना की बस हम तुरंत ही चाहने लगे की बस  कोई आये हमारी बेइज्जती कर दे.. हाँ जी हम तब से अपनी बेइज्जती को तरस रहे हैं साहिब. अब वो बात क्या थी ये भी सुन लीजिये. बकौल उनके आप अपनी बेइज्जती करा लीजिये तो आप विश्व मे जरुर एक ना एक दिन अपना नाम कर लेंगे. नहीं जी ये कोई हवाई बातें नहीं उन्होंने तीन बहुत बड़े बड़े तर्क दिए हमे इस बात के पीछे के. आप भी पढ़िए वो तर्क या वो उदहारण..

पहला तर्क था महात्मा गाँधी जी का जिसमे उनकी दक्षिण अफ्रीका मे एक ट्रेन मे कुछ अंग्रेजों ने उनको बेइज्जत किया था बावजूद इसके की उनके पास प्रथम श्रेणी का टिकेट था. इस बात ने बापू को इस कदर आहत किया की वहां से उन्होंने ठानी की बस अब तो इन सब अत्याचारों के खिलाफ एक अहिंसात्मक जंग छेड़नी होगी और वो दिन था और आज का दिन है कौन नहीं जानता विश्व भर मे बापू को. ये था बेइज्जत होके नाम कमाने वाला पहला तर्क.


दूसरा उदाहरण था बाबा भीम राव अंबेडकर का. कोई एक बारिश के दिन जब बाबा साहेब छोटे बालक थे किसी एक मकान की आड़ मे खड़े हो गए भीगने से बचने के लिए. इसी बीच मकान मालिक ने उन्हें खड़ा देखा और ज्यूँ ही उसे पता चला की ये बालक तो अछूत है, बस क्या था खुद भीगते हुए उसने बाबा साहेब को वहां से खदेड़ दिया. एक घटना और थी जहां पे बालक अंबेडकर किसी बेलगाडी मे बैठ के जा रहे थे, राह मे ही बैलगाड़ी वाले ने उनसे उनके पिता का नाम पुछा और जैसे ही उसे पता चला की बालक तो एक दलित पुत्र है उसने बाबा साहेब को गाडी से उतार दिया. बस उसी दिन बाबा साहेब ने शायद कुछ सोचा और आज के दिन हम जिस देश मे रह रहे हैं वो और उसका हर नागरिक उनके लिखे सिद्धांतों नियमों पे चल रहा है वो चाहे एक दलित हो या कोई ऊँची जात का, एक गरीब हो या बहुत धनवान व्यक्ति.

तीसरा उदाहरण था तुलसी दास जी का.. पत्नी प्रेम मे इतना व्याकुल हो बैठे की एक दिन बिना किसी सुचना या आमंत्रण के वो पहुँच गए अपनी पत्नी से मिलने उनके मायके. बस क्या था उनकी पत्नी उन्हें यकायक देख के कुछ इस तरह शर्मिंदा और क्रोधित हुई की उन्होंने कुछ इस तरह से तुलसी दास जी को कोसा की इस तरह का प्रेम जो तुम मुझसे करते हो बिना बुलाये इस तरह से आ पहुंचे लोग क्या कहेंगे, इतना प्रेम अगर तुमने भगवान से किया होता तो कुछ सार्थक होता. बस ये थी वो बेइज्जती जहां से उन्होंने कुछ ऐसा कर डाला की आज वो विश्व के एक महानतम ग्रन्थ श्री राम चरित मानस के रचयिता के रूप मे जाने जाते हैं.

बस ये तीन महापुरुष और उनकी ये बेईज्जतियाँ. बस हमारे मन मे तब से एक प्रबल इच्छा धर कर बैठी की कोई तो आये और कुछ इस कदर बेइज्जती कर दे की बस हम भी कुछ कर जाएँ इस दुनिया मे.  पर कोई उपाय सुझा ही नहीं जिससे हम खुद की बेइज्जती करा पाएं. हाँ एक और बात आती है मन मे की क्या आज के दौर मे जब हर कदम पे नफरत, गतिरोध और जलन रुपी महादानव व्याप्त है तो क्या बेइज्जती रुपी दानव अकेला इनको हरा पायेगा और क्या आज हमारे पास इतनी शर्म और इच्छाशक्ति व्यापत है की हम एक कठोर निर्णय लेके उसपे अमल कर पाएंगे. हाँ क्यूँ नहीं पर उसके लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ेगा शायद वो सब कुछ जिसकी हमे आदत है और जिसके बिना हम जीने की सोच भी नहीं पाते.

बेइज्जती हो जाने भर से हम सफल हो जायेंगे??

नहीं बिलकुल भी नहीं. उदाहरण पढने मे तो लगता है हमे भी सुनने मे लगा था की बस बेईज्जती हो जाएगी, मन कुछ कचोट देगा और कुछ कर जायेंगे. पर नहीं वो बेइज्जती भी सिर्फ उन्ही को कचोट सकती है जिनके पास परम इच्छा शक्ति, परम अंतर बल, कठोर मानसिकता और परम सहनशीलता हो. जो उन तीनों के पास था.

पर हमारे पास शायद नहीं है क्यूंकि हम तो हमेशा से आज की उन्नत तकनीक का सहारा लेके जीते आये हैं. चलने को गाडी ऑटो सब मौजूद है. खाने को दुनिया भर के व्यंजन बस जेब भर की दूरी पे हैं. इस कंप्यूटर और मशीनी दुनिया मे आत्म सम्मान और शर्म भी बस दिखावे भर के लिए ही बची है.

पर कोई बात नहीं आप एक बार कोशिश कर के देखिये. हाँ जनाब कोशिश करिए की कोई आपकी भरे समाज मे बेइज्जती का दे क्या पता आपका आत्म सम्मान इतना मजबूत हो की आप उठके कुछ कर ही जाएँ. कोशिश करने मे क्या जा रहा है तो बस कुछ उपाय ढूंढिए अच्छे अच्छे और हमे भी बताइए की कैसे अपनी बेइज्जती करा लें... आखिर हमे भी नाम कमाने का शौक है भाई..
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

हाँ आज फिर ये दिल रोया है

लो आज फिर याद आ बैठा,
की तू दूर है मुझसे कहीं,
इल्म था उसका जो खोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

भूलने की नकली कोशिश,
हंसी का नकाब ओढ़े चेहरा,
गम को बहुत मन मे ढोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

बिखरी हुई सी ढेरों आरजू,
टूटी सी हजारों ख्वाहिशें,
अब हर सपना तक तो सोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

लहूलुहान सा मेरा ये मन,
अचेत सा मेरा ये जीवन,
शायद वही  पाया जो बोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.

खामोश सी चीखती तड़प है,
आंसू भी तो निकलते नहीं,
फूलों ने भी तो हमे चुभोया है,
हाँ आज फिर ये दिल रोया है.
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

कैसा होता है दीवाना..

अश्रुओं की धारा,
ग़मों का दरिया,
यादों का सागर,
बस कुछ ऐसा ही....


दर्द भरा दिल,
सपनों भरा चेतन,
चित्त मे कई मर्म,
बस कुछ ऐसा ही....

खामोश सी जुबान,
बहकते से कदम,
बुझती सी आँखें,
बस कुछ ऐसा ही....

प्रेम को तलाशता,
पुष्पों को निहारता,
सोचता सा हरदम,
बस कुछ ऐसा ही....

बेरंग जिसका रंग,
ढीला सा एक बदन,
उलझा हुआ जीवन,
बस कुछ ऐसा ही....

मुट्ठी बंद हाथ,
बिखरी सी उंगलियाँ,
उनमे चलती अनबन,
बस कुछ ऐसा ही....

काँटों पे चलता,
पंखुड़ियों से डरता,
खुशबू से उलझन,
बस कुछ ऐसा ही,
होता है एक दीवाना...

जिंदगी खो दी मैंने तो

वक़्त भी ना मिल पाया मुझको कभी अगर माँगा भी तो ..
उस एक वक़्त की कमी से पूरी जिंदगी ही खो दी मैंने तो..

दोबारा जी भी सकूँगा के नहीं पता नहीं अब जिंदगी तुझे..
तेरी ही चाह में हर पल की अपनी ख़ुशी ही खो दी मैंने तो..

कभी यादों ने परेशां किया तो कभी दिल के जख्मों ने..
परेशानियों को भुलाने मे बची हर हंसी ही खो दी मैंने तो..

खुदा से मांगी दुआएं की दिल को सुकून कुछ तो मिले,
मांगने की फितरत मे खुदा की बंदगी ही खो दी मैंने तो..

मशगुल तब तो कुछ जेहन रहने लगा हर घड़ी सोचों मे..
इन सोचों के घेरों मे अपनों की कमी ही खो दी मैंने तो..

मय पीना फितरत तो ना थी पर फिर आदत सी बन गयी..
नशे मे इस कदर डूबा की अपनी जमीं ही खो दी मैंने तो..

महकती हुई फिजाओं मे भी दुस्वारियां सी दिख्नने लग गयी..
काँटों को छांटने मे महकते फूलों की खुशबू ही खो दी मैंने तो..

अधूरी सी कुछ ख्वाहिशें हर पल हर कदम सताती मुझको..
ख्वाहिशों की चाहत मे रिश्तों की हर कड़ी ही खो दी मैंने तो..
बुधवार, 21 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

किराये की जिंदगी

कभी किसी कभी किसी की,
हमेशा दूसरों की तर्ज पे जी,
पता नहीं अपनी कब होगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

कभी रिश्तों कभी दोस्तों की,
ख्वाहिशें दूजों के मन की ही,
मेरी अधूरी इच्छाओं से भरी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मंजिलें तो तय थी खुद की,
पर रास्ते दुनिया दिखाती,
रास्तों मे कहीं उलझी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

जन्म से ही दूसरों से सीखा,
जो अच्छा लगा वो था बुरा,
अच्छे बुरे मे कुछ फंसी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मौत भी कुछ अजनबी सी,
चाहने पे वो भी आती नहीं,
किराये से छूटने मे लगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.
रविवार, 18 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक अधुरा सा लेख और एक सवाल.... जवाब आप दो..

कभी रात के अंधेरों मे तन्हाई से गुजरते हुए मन मे कई बार ये ख्याल सा आया की ये जीवन है क्या.. और क्यूँ इतना आशान्वित हैं लोग इसको लेके. जीवन तो इतने कष्ट देता है सबको, हाँ खुशियाँ भी देता है जरुर. और मौत को देखिये शांत सी पड़ी हुई सुकून देती हुई. फिर याद आया अपना एक सफ़र लखनऊ से नैनीताल का. रात्री करीब १ बजे मन मे पता नहीं क्या ख्याल आया की मे ट्रेन के दरवाजे को खोल के वहीँ पे बैठ गया. शांत सी लगने वाली हवा के थपेड़े बहुत जोर जोर से लग रहे थे, छोटी लाइन की गाडी थी तो कूदा कूदा के ऐसा एहसास दिला रही थी की मानो किसी बैलगाड़ी मे बैठा हुआ हूँ. इन सभी स्थितियों को सँभालते हुए स्वयं को स्थिर किया तो एक अनंत सुनसान ना जाने कहाँ तक फैली हुई धरती थी, कहीं कोई रौशनी नहीं, कहीं कोई आबादी नहीं, तो उस वक़्त लगा की काश जिंदगी ऐसी ही होती... शांत, विशाल सी, फैली हुई सी, चित्त कुछ शुन्य सा होके वहीँ पे खो सा गया और पता नहीं एक पल मे ना जाने कहाँ कहाँ घूम आया. पर पता नहीं क्यूँ कुछ देर मे ही थकान सी होने लगी और मन मे इच्छा हुई की चलो उठते हैं यहाँ से कुछ देर के लिए, मित्रों को जगाते हैं और अगले प्लेटफ़ॉर्म पे चाय का लुत्फ़ लेते हैं. पीलीभीत नाम का प्लेटफ़ॉर्म आया,  ट्रेन से उतर के कुल्हड़ वाली चाय ली, सच पूछिए तो ट्रेन के सफ़र मे जो कुल्हड़ की चाय का मजा हमारे भूतपूर्व मंत्री जी ने दे दिया उसका जितना भी धन्यवाद् किया जाए कम ही है. खैर चाय पीते हुए देखा उन प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए लोगों को, दौड़ते हुए खाली सीट और खचाखच भरे डिब्बों मे जगह ढूँढते हुए लोगों को, पैसा और रोटी मांगते बच्चों, औरतों और अपाहिजों को, चाय चाय चिल्लाते चाय वाले, कहीं प्लेटफ़ॉर्म पे सोते हुए, बेंच पे शांत से किसी ओर निहारते हुए कुछ लोगों को, मगर सिर्फ देखा ही कुछ सोचा नहीं. ट्रेन का होर्न बजा और फिर से चढ़ बैठा मै अपनी उसी जगह पे... पर अब वही शांत सी जमीन मे वो मजा नहीं रहा था तो मैंने सोचा की क्यूँ अब क्या हुआ....तब लगा की हाँ जीवन को तो मैंने अभी ही देखा वो लोग वो भीड़ वो अलग अलग से चेहरे वो खुशियाँ वो गम ... लेकिन कुछ समझ सा नहीं आया की आखिर ये सब क्यूँ लगा, क्यूँ इतनी विरोधात्मक सोच.... क्या आप बता पायेंगे की क्यूँ...
बुधवार, 14 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

जिंदगी और रास्ता...

सब चलते ही तो हैं अपने जीवन मे... और ये पंक्तियाँ बस एक चलते जीवन के नाम...

किसी रोज चलते हुए,
एक ख्याल सा आया,
अपने जीवन को मापा,
पर सिर्फ एक शुन्य ही पाया.

उलझी सी कुछ राहें,
कुछ दुर्गम सा सफ़र,
अनजानी सी एक मंजिल,
हर मोड़ पे एक रोड़ा पाया.

कहीं सरल भी था कुछ,
कुछ साथी राही भी थे,
पर हर इक मुश्किल पे,
खुद को बस तन्हा पाया.

क्षुधा भी लगी बहुत पल,
तन का भी साथ ना था,
जल मिला अगर कहीं तो,
उसको भी खारा सा पाया.

सूरज की तपती किरणें,
धुप बहुत थी राहों मे,
छाँव ढूंढी कभी अगर तो,
पेड़ों को भी बिन पत्ते पाया.

लम्बा सफ़र कठिन डगर,
थकान भी लगी बहुत पल,
कुछ ठहरूं  सोचा जब तो,
वक़्त को भी कम सा पाया.

हुई इक प्रीत किसी मोड़ पे,
वादे किये कुछ उसने भी,
हमसफ़र बनने का सोचा तो ,
दिल से भी बस धोखा खाया.

बरगलाते हुए चंद चौराहे,
कुछ भटकाते मोड़ भी थे,
राहगीरों से पुछा कभी तो,
उन लोगों ने भी खूब छलाया.

ऐसा नहीं की मंजिल दूर थी,
दिखती सी भी एकदम सामने,
बढ़ चला उस ओर कभी तो,
बस गुमते से मोड़ों को पाया.

ठंडी सी कुछ कोमल किरणें,
रात के अंधियारों मे दिखती,
रौशनी की आड़ मे चला तो,
अंधेरों को गहराता सा पाया.

राहों के संग यादें भी थी,
और उनमे कुछ सपने भी,
सच करने की सोचा जब तो,
सपनों को अनदेखा सा पाया.

नींद भी कभी थी आँखों मे,
सोने का कुछ मन भी था,
बंद करी पलकें अगर तो,
नींदों को उड़ता सा पाया.

चलता तो हूँ अब भी मै,
पर कुछ अनजान सा हूँ,
खुद को ढूंढा अगर कभी तो,
अपने को खोया ही सा पाया.

इस सफ़र की अजब कहानी,
दिल मे भी कुछ थी बेचैनी,
लिखने की सोचा इसको तो,
स्याही को भी बेरंग सा पाया.
सोमवार, 12 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

मन की उमंगें

कुछ बावरा सा ही होता है मन, चाहे जिस किसी का भी हो, बहुत सी उमंगें और सोचें उसमे फलांग मारती रहती हैं.. उन्ही मे से कुछ मचलती सी  भावनाओं को बस लिख भर दिया है....

मन करता कभी उडूं मै,
चल जाऊं उस बादल पे,
सहलाऊं धीरे से उसको,
दो बूँद जल की ले आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
छु लूं मै उन तारों को,
तोड़ के बस किसी एक को,
मुट्ठी मे बंद कर लाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
और जाऊं चाँद के पास,
उसको थोडा सा छु कर के,
उसकी ठंडक को पा जाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
जाऊं उस सूरज पे चढ़,
थोडा सा फूक के उसको,
बस कुछ ठंडा कर आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
पक्षियों के संग संग जाऊं,
सीखूं उनसे चहचहाना,
और कुछ तिनके भी ले आऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
बारिश की तह तक जाऊं,
ऊपर से देखूं गिरता उनको,
और थोडा सा रंग मिलाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
हवा के संग बहता जाऊं,
दूर चलूँ फिर किसी देश मे,
और थोड़ी सी मिटटी भर लाऊं.


मन करता कभी उडूं मै,
 दूर कहीं आसमान मे,
और देखूं फिर दुनिया को,
फिर वहां से इक चित्र बनाऊं.

मन करता कभी उडूं मै,
 पर्वतों पे कहीं पहुँच के,
उन पे गोदुं कुछ मन का,
और सबको अपने गीत दिखाऊं.

ऊपर वाला

मजहब ... कुछ स्वार्थी लोगों ने इस शब्द को कुछ इत्ता डरवाना बना दिया है की मजहब और धर्म का नाम कुछ खून का सा पर्याय बन गया है.. तो उन्ही भावनाओं को की किस तरह से हमारे घरों मे छोटे बच्चों को क्या सिखाया जा रहा है और इतनी गहनता के साथ बच्चे उसे सीख रहे हैं, मैंने इस रचना मे डाला है.. 

एक दिन उसको पिता ने बोला,
 
बेटा तेरे अन्दर बसते हैं भगवां,
 
खेलने को निकला बाहर दुनिया मे,
 
मिला एक मोहम्मद से कहीं पे,

बोला पता है तेरे अन्दर हैं भगवां,

मोहम्मद बोला हट तुझे नहीं पता,

मेरे अन्दर तो रहता है मेरा खुदा,

बस झगड़ पड़े दोनों बिन सोचे,

तब छोटा डेविड भी आया कहीं से,

पुछा अरे दोस्तों क्यूँ झगड़ते हो,

दोनों बोले बता तेरे अन्दर कौन,

डेविड बोला अन्दर तो ईसा बसता,

तो वो झगडा था एक मासूम सा,

पर था उनका पहला मजहब का,

मै गुजर बैठा तभी उधर से,

लड़ते देखा तो पुछा क्यूँ लड़ते हो,

बोले बताओ अन्दर कौन है बसता,

मैंने कहा देखो हम सब इन्सां,

न कोई हिन्दू न कोई मुसल्मां,

हमारे अन्दर एक ही रचयिता,

चाहे कह लो उसे खुदा या ईसा,

मानो तो बस एक ही रहनुमा,

मै तो कहता उसे ऊपर वाला,

उस पल बच्चे दिए मुस्कुरा,

जैसे कह रहे हों मुझको पगला...
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

पगला मानुष

कभी तन्हाई मे बैठ के सोचो.. क्या हम पगले नहीं हैं.. कभी कुछ तो कभी कुछ करते हैं... कोई निश्चितता तो है ही नहीं जीवन मे.. तो हम भी तो एक पगले मानुष ही हैं...

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

किस पल मे मै हंस बैठूं,
न जाने किस पल  रो जाऊं.
किस पल को न जाने जी लूं,
न जाने किस पल मर जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो हो सकता हूँ सरल सा,
न जाने किस पल मै अड़ जाऊं.
कभी तो बह चलूँ पवन सा,
न जाने किस पल फंस जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो लड़ बैठूं अजेय सा,
न जाने किस पल डर जाऊं.
कभी तो वीरों सा गरजूं मै,
न जाने किस पल सहम जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

चलता रहूँ कभी तो हर पल,
न जाने किस पल थक जाऊं.
कभी तो काँटों पे दौडूँ मै,
न जाने किस पल फूलों से कट जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो हूँ उन्मुक्त गगन सा,
न जाने किस पल मिटटी बन जाऊं.
कभी तो हूँ मै विशाल सागर सा,
न जाने किस पल ओझल हो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

उडूं कभी एक स्वछंद  पंछी सा,
कभी पिजरे मे बंध जाऊं.
कभी जगा दूं इस दुनिया को,
कभी जगा के खुद सो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

सुख बांटू कभी जहां को,
कभी दुःख मे खुद खो जाऊं.
कभी अकेलों का साथी हूँ,
कभी भीड़ मे तन्हा हो जाऊं.

मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

कभी तो बढ़ चलूँ समंदर सा,
कभी ताल सा थाम जाऊं,
कभी तो मै इन्द्रधनुष हूँ,
कभी अमावस सा बेरंग हो जाऊं,

मै तो एक पगला मानुष,
ना जाने किस पल क्या कर जाऊं.

मै भी तो हूँ तुम सब जैसा,
तुम भी पगले मै भी पगला,
मेरी तरह तुम भी अनजाने,
बस दिखाते हो खुद को सयाने.

तो आओ मेरे साथ मे गाओ,
दुनिया को तुम भी बतलाओ,
मै तो एक पगला मानुष,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.

न जाने किस पल क्या कर जाऊं,
न जाने किस पल क्या कर जाऊं.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

आज भी उतना ही जीता हूँ मै

जिंदगी कुछ तो बदल जाती है आपके सपनों के टूटने के बाद.. आप जीते तो हो पर वो बात नहीं रह जाती.. सपने तोड़ने वाले को आपका डर रहता है,पर इस बात का नहीं की आपका क्या होगा, इस बात का की आपको कुछ हो गया तो उसको कितनी आत्मग्लानी होगी..

दिल मे चोटें भी हैं, मन मे कई मर्म भी,
इन सब घावों को, तेरी यादों से सीता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

मय पहले भी पीता था, आज भी प्याले छलकते हैं,
लेकिन पहले खुशियों थी, आज गम मे पीता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

रोता तो तब भी था, पर वो दर्द दर्द न देते थे,
अब दर्दों का तो पता नहीं, पर वेदनाओं की सरिता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

जीवन के पृष्ठों पे, हजारों सपनों के किस्से थे,
सपने तो बह गए, अब एक दर्द भरी कविता हूँ मै,
पर तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....

मेरी फिकर नहीं तुझको, डर है अपने अंतर्मन की,
मत डर चोटिल ही सही, आज भी वही चीता हूँ मै,
तो तू मत घबरा, आज भी उतना ही जीता हूँ मै....
बुधवार, 7 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

क्यूँ बोलूं.

खामोशियों मे कभी चीखने का मन होता है बहुत, पर फिर मन सोचने लगता है की क्या फायदा चीख के.. लोग मिलते हैं तो पूरे मन की व्यथाएं, खुशियाँ सब कुछ बोल देने का मन करता है.. पर फिर सोचता हूँ की आखिर क्या बोलूं और क्यूँ बोलूं... तो इस रचना मे जो दो पंक्तियाँ लिखी हैं हर भाग मे, उनका अर्थ मेरे लिए तो बहुत बड़ा और गहरा है.. आशा है की आप भी उसे पकड़ लोगे...


जीवन की कठिन राहों पे,
सफ़र तो अकेले ही करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


यादें तो आनी ही हैं,
उनमे ही जीवन कटना है,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


चिंतन करने की क्यूँ सोचूं,
होनी को तो होना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


कर्तव्यों की आढ़ मैं,
वादों को तो टूटना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


सपने तो दिखते ही हैं,
पर रिश्तों को भी तो जीना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


ख्वाहिशें तो काम है चेतन का,
और उसको तो वो करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


जीवन सिर्फ जीता ही तो नहीं,
एक दिन तो उसको भी मरना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


गलतियां तो हुई है बहुत सी,
पर पीछे जाना तो होगा नहीं,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


खामोश भी रहा नहीं जाता,
पर दर्दों को भी कोई सुनता नहीं,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं......

खो चुका हूँ मै..

मधुशाला के प्यालों मे, बिखरे सपनों के टुकड़ों मे,
मय मे डूबा हुआ कहीं पे, बहुत तन्हा हो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

भीड़ मै भी अकेला सा, यादों मे डूबा हर पल,
ख्वाहिशों मे लुटा कहीं पे, बहुत रो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

कभी हँसते हुए दुनिया को हंसाता था संग मे,
आज गम के दरिया मे, हंसी को डुबो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........

पुष्पों की सुगंध को, पंखुड़ियों की कोमलता को,
उपवन के रंगों को भूल के, काँटों को संजो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै.......

दिल खामोश है, दिमाग कुछ परेशां सा हर पल,
नींद आती नहीं अब, शायद बहुत सो चुका हूँ मै,
हाँ आज खुद को खो चुका हूँ मै........
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

पराई सड़क..

एक एहसास है मेरे मन का, किसी एक रास्ते को खो देने का दर्द, वो रास्ता जिससे गुजरने मे कभी मुझे दिन भर की खुशियाँ एक पल मे ही मिल जाती थी.. पर आज वो ही सड़क पता नहीं क्यूँ एकदम अजनबी सी है... कदम तो अब भी उधर मुड़ते हैं पर एक अजीब से डर के साथ.. डर उस सड़क के खो जाने का.. उस सड़क की छाँव के खो जाने का.. मंजिल मे न पहुँच पाने का...

मन मे एक मायूसी सी आज फिर छाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

चलता था किसी भी राह पे, कदम खुद मुड़ जाते थे,
उसकी गलियों से गुजरने को, बहाने हर पल बनाते थे.
पर आज उन राहों पे सिर्फ और सिर्फ तन्हाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

दिख जाये बस झलक उसकी, आरजू हमेशा होती थी,
चेहरा जिधर भी होता, नजरें उसको कभी न खोती थी,
पर आज आँखों पे सिर्फ उसकी अधूरी परछाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

बहुत दूर जा चुकी वो, पर अक्स अब भी मेरे पास है,
यादों को भुला भी दूं, तो मन मे उसका एहसास है,
पर उसको सोचने मे भी तो अब खुद की ही रुसवाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

आज भी गुजरता हूँ उन्ही राहों से, तलाशते हुए उसको,
थक सा गया हूँ बेरुखी से, दर्द देता हूँ अब खुद को,
पर खो चुका हूँ उसे मै अब यही मेरी सच्चाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.

इस राह के आखिर मे सिर्फ एक अँधेरी खाई है,
हाँ मुझे एहसास है की वो सड़क अब पराई है.
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

खडंजा..

क्या आपको याद हैं वो दिन जब ये चमकती डामर की सड़कों के बदले वो उबड़ खाबड़ खडंजे हुआ करते थे... जिंदगी कुछ अलग सी हुआ करती थी... तो यहाँ पे मैंने कुछ पुरानी जिंदगी को खडंजे से जोड़ते हुए नयी जिंदगी से तुलना करने का एक छोटा सा प्रयास किया है...

ईंट पत्थर से बना, धुल मिटटी सी सना,
फिर भी अच्छा सा लगता था वो खडंजा,
उबड़ खाबड़ सा, और कहीं पे कुछ समतल सा,
डगमगा के कहीं हलके से संभलता था खडंजा.
किनारे पे चूरन की दुकान,और इमली का ठेला,
कुछ कड़वा और खट्टा सा भी लगता था खडंजा.
ठन्डे पानी का वो मटका छाँव पे पेड़ के नीचे कहीं,
आत्मा को तृप्ति मन को शांत करता था खडंजा.
आज पता नहीं कहाँ खो गया है वो रास्ता,
चमकती सी सड़क दिखती तो है समतल सी,
सुनी सी जिंदगी शांत सी चलने लगी है,
मगर चमकती हुई सी कुछ चुभती है सड़क.
वो खट्टी कडवी राहें भी दिखती नहीं,
वो मटके भी कहीं मशीन मे बदले से दिखते हैं,
बस चलते से जाते हैं कदम बिना हलचल के,
मुझको तो अब भी याद आता है बस वो खडंजा....
मंगलवार, 30 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

मेरी मजबूरी...

कुछ मर्म सा है मेरे मन मे कुछ छुट सा जाने का, या कुछ खो जाने का, शायद आपको मेरी पुरानी रचनाओं मे भी इसकी काफी झलक दिखी होगी और आगे भी दिखती रहेगी.. कुछ है जो हमेशा कचोटता  है अन्दर से.....


न जाने क्यूँ मे खुद को पहचान नहीं पाता,
गम को तो छुपा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस मन की वेदना को छुपा नहीं पाता.

न जाने क्यूँ खुद को पथीक कहला नहीं पाता,
मंजिल तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर रास्तों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ तेरी यादों को भुला नहीं पाता,
तेरा सच तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर उन वादों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ इन इच्छाओं को दबा नहीं पाता,
चेतन को तो समझा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस नासमझ चित्त को मना नहीं पाता,

न जाने क्यूँ इश्क अब किसी से कर नहीं पाता,
दिल को तो अब लगा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर तेरी यादों को अब भी मैं भूला नहीं पाता.

वो आवारगी..

दिन भर के ऑफिस के थकान भरे काम काज के बाद कभी जब घर आ के लेटता हूँ बिस्तर पे.. तो अपनी अधूरी ख्वाहिशों के सपनों के पीछे दौड़ने लगता हूँ.. इसी दौड़ पे कभी कभी उन दर्द भरी ख्वाहिशों को फांद के और पीछे चला जाता  हूँ तो याद आता है अपना वो लड़कपन.. एक वो समय जब मेरा अपना कोई अस्तित्व महसूस ही नहीं होता था मुझे, जब मै पता नहीं कौन हुआ करता था.. बेफिक्र सा, शुन्य सा मन लिए बस अपने आवारा क़दमों के दम पे पूरी जिंदगी, आवारा दिल के दम पे मनचाहे प्यार को पाने की इच्छाएं रखता था.. दोस्त थे साथ मे कुछ, जिनसे झगडे ही ज्यादा होते थे... पर अब भीड़ के साथ मे जो अकेलापन महसूस होता है उसमे उन सबकी बहुत याद आती है... उस वक़्त लगता है काश की कभी वो दिन लौट पाते...


क्या अब कभी लौट सकते हैं मेरे वो दिन..
बस देख के कुछ जलन सी होती है कभी,
हँसते से सड़कों पर चिल्लाते चेहरे देख के,
बेफिक्र आवारा से बस दौड़ते से वो कदम,
धुल मिटटी से सने बडबडाते हुए से हरदम.
बेपरवाह चाय के ठेलों पे चुस्कियां लेते,
कुछ अजीब बातों पे बहस सी करते हुए,
पल मे दोस्ती और अगले पल लड़ते हुए,
दिन की धुप मे भी छाँव की परवाह नहीं,
पसीने मे भीगते दुनिया को घुम जाना.
कॉलेज से भाग के तीन पत्ती का वो खेल,
घर आ के थका सा बिस्तर पे लेट जाना,
माँ का गर्म खाना देना प्यार से उस पल,
और उस पे  मेरा कुछ नखरा सा दिखाना,
याद अब भी आता है माँ के हाथ से खाना,
घनी धुप मे निकल जाना दोस्तों के साथ,
धुल भरी सडकें और गलियों को फांकना,
उस समोसे को हरी चटनी के साथ खाना,
चाय संग अपनी प्रेम कहानी दोस्त को सुनाना,
खाली वक़्त दो लाइन की शायरी लिख इतराना,
हाँ मैंने भी जिया है वो अपना लड़कपन दीवाना,
कभी किसी लड़की को देख के किसी सड़क पे,
दो दिन तक उन्ही रास्तों पे मंडराते रहते थे,
प्यार तो हमको भी रोज हुआ करता था,
और रोज ही बेचारा दिल टूटा करता था,
पैदल ना जाने कितने ही दूर निकल जाया करते थे,
जिंदगी तो चार क़दमों से ही नाप लेंगे लगता था,
हाँ हमने भी जी है वो आवारा लापरवाह जिंदगी,
पर आज न वो दिन हैं न ही वो बेफिक्र जिंदगी,
जाने कहाँ खो गया है वो खामोश हलचल भरा वक़्त,
हाँ मे लौटना चाहता हूँ आज फिर से वहीँ पे कहीं,
क्यूँ नहीं ये जिंदगी और कुछ छोटी सी होती है,
और उन्ही दिनों पे आ के कहीं रुक नहीं जाती,
बार बार मन से कहीं ये वेदना सी निकलती है,
क्या आज अब कभी लौट सकते हैं मेरे वो दिन.........
सोमवार, 29 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

चक्रव्यूह - एक उलझन जहन की...

पुष्प की सुगंध को सराहूं या उसकी सुन्दरता की तारीफ़ करूं..
न जाने भ्रमर को क्या लुभाता है हर एक पुष्प पे मंडराने को..

अचेत भ्रमित सा है कुछ मेरा ये अंतर्मन क्या वो भ्रमर ही है..
जो पुष्प को गर्वित होते हुए इठलाने का अवसर दिया करता है..
या पुष्प है जो भ्रमर को जीने का एक अलग नजरिया देता है..
या नहीं शायद दोनों ही एक दुसरे के बिना कुछ अधूरे से हैं..

बिना पुष्प भ्रमर की दीवानगी का कहाँ किसी को पता चलता..
भ्रमर न होता तो पुष्प की सुन्दरता का व्यख्यान कौन करता..
शायद यही प्रक्रति है किसी भी जीवनपंथी की और जीवन की..
जीवन पंथी के बिना अधुरा है पंथी जीवन के बिना कुछ नहीं..

फिर भी न जाने क्यूँ हर एक जीवन एक पुष्प की तरह है..
और चलने वाला जीवनपंथी एक भ्रमर का कुछ द्योतक सा है..
न जाने क्यूँ पंथी ही हर घड़ी जीवन के पास ही मंडराता है..
बिना सोचे की उसके बिना तो जीवन का कोई महत्व ही नहीं..

कुछ अजीब सा चक्रव्यूह सजा है पुष्प और जीवन दोनों ही का..
भ्रमर भी फंसा है उसमे और पंथी भी पूर्णतयः उलझा सा हुआ..
इस जाल से छुट सा जाने का एक भय सा है इन दोनों में ही..
पुष्प और जीवन दोनों ही अट्टहास करते होंगे शायद इन पे..

फिर भी प्रफुल्लित हैं भ्रमर और पंथी बिना खुद की पहचान के..
जानते हुए की उस मृत्यु के पल सिर्फ तन्हाई ही साथ में होगी..
रविवार, 28 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

कुछ उम्मीदें

उस दिन को कोसूं या फिर आज खुद को दोष दूं,
सोचा ही नहीं था की कुछ गलत सोच लिया था,
जाने क्या था पर इश्क तो तुझसे  कर ही लिया था.

सपनों पे यकीं था पर इस कदर करना था की नहीं,
इस पर तो शायद कभी गौर ही नहीं कर पाए हम,
पता नहीं क्यूँ हर सपना तो तुझको दे ही दिया था.

उम्मीदें तुझसे भी हमे करनी थी या की शायद नहीं,
बस वादे ही करते रह गया उस तमाम वक़्त तेरे साथ,
पर उम्मीदों के साए में तुझको भी तो रख ही लिया था.

वक़्त माँगा था तुझसे या शायद वो भूल थी मेरी ही,
तेरे इनकार को बस मजाक ही समझते रह गए हम,
पर वक़्त के इंतेजार मे तुझको तो रख ही लिया था.

किस्मत पे भरोसा था ना जाने क्यूँ आखिर तक,
कुछ भरोसा तेरा भी हमेशा मेरे साथ था कहीं पे,
पर भरोसे की आड़ मे खुद को तो ठग ही लिया था....

तलाश मंजिल की

मन की बहुत गहराइयों मे उतर के और ढेर सारा दर्द महसूस करते हुए ये कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं.. जाहिर है की दिल की गहराइयों से निकली हैं तो दिल के और मेरे जीवन के बहुत ही करीब भी होंगी... ये पंक्तियाँ लिख के शायद मे अपने दर्द को कहीं न कहीं आपसे बांटना चाहता हूँ.. कितना सफल हुआ हूँ इसका फैसला तो पढने वाला ही कर पायेगा.. पर ये वो पंक्तियाँ हैं जिनमे मुझे अपने मन की एक बहुत बड़ी कसक निकालने का मौका मिला है.. ये वो पंक्तियाँ हैं जहाँ पे मुझे किसी बहुत ही करीबी चीज को या आरजू को खोने की एक पीड़ा को व्यक्त करने का अवसर मिला है...


बढ़ना तो शुरु कर दिया, मंजिल की तलाश में, वो मंजिल जो सामने ही थी कहीं..
राह तो कुछ कठिन थी, मुश्किलों से सफ़र कुछ आसां किया तो खुद मंजिल ही धोखा दे गयी.


शिकायत भी करी कहीं पे तो खुद ही रुसवा हो गए, शायद गलतियाँ हमने भी की थी कहीं..
खुद को जब कुछ समझ आया, तो वक़्त ही न बचा था वक़्त माँगा तो घडी ही धोखा दे गयी..


सामने दिखती है वो अब भी, पर उस मंजिल पे किसी और की दस्तक दिखने लगी है अब तो..
उस दस्तक को चुप करके हराना चाहा तो जरुर, पर हमारी खुद की दस्तक हमे धोखा दे गयी..


कुछ वादे तो उसने भी किये थे हमसे, एक आस बाकी थी उन्ही वादों की जहन में कहीं..
सोचा की उसकी याद ही साथ दे देगी शायद, पर कम्भक्त उसकी याद भी हमे धोखा दे गयी..


खामोशियों के सिवा कुछ बचा न था अब, तो सोचा भीड़ बन के ही उसके करीब आ जायें कहीं..
कोशिश तो की थी जरुर हिस्सा बनने की, पर किस्मत का क्या कहिये वो भीड़ भी कम्भक्त धोखा दे गयी..


चलो तनहाइयों में खो के कहीं किसी दूसरी मजिल को तलाशें, सोच के आगे हम भी बढ़ चले..
दूसरी मंजिलें भी मिली बड़ी ही आसानी से, मगर इस बार पुरानी मंजिल की चाह धोखा दे गयी..