मंगलवार, 30 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

मेरी मजबूरी...

कुछ मर्म सा है मेरे मन मे कुछ छुट सा जाने का, या कुछ खो जाने का, शायद आपको मेरी पुरानी रचनाओं मे भी इसकी काफी झलक दिखी होगी और आगे भी दिखती रहेगी.. कुछ है जो हमेशा कचोटता  है अन्दर से.....


न जाने क्यूँ मे खुद को पहचान नहीं पाता,
गम को तो छुपा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस मन की वेदना को छुपा नहीं पाता.

न जाने क्यूँ खुद को पथीक कहला नहीं पाता,
मंजिल तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर रास्तों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ तेरी यादों को भुला नहीं पाता,
तेरा सच तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर उन वादों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ इन इच्छाओं को दबा नहीं पाता,
चेतन को तो समझा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस नासमझ चित्त को मना नहीं पाता,

न जाने क्यूँ इश्क अब किसी से कर नहीं पाता,
दिल को तो अब लगा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर तेरी यादों को अब भी मैं भूला नहीं पाता.

वो आवारगी..

दिन भर के ऑफिस के थकान भरे काम काज के बाद कभी जब घर आ के लेटता हूँ बिस्तर पे.. तो अपनी अधूरी ख्वाहिशों के सपनों के पीछे दौड़ने लगता हूँ.. इसी दौड़ पे कभी कभी उन दर्द भरी ख्वाहिशों को फांद के और पीछे चला जाता  हूँ तो याद आता है अपना वो लड़कपन.. एक वो समय जब मेरा अपना कोई अस्तित्व महसूस ही नहीं होता था मुझे, जब मै पता नहीं कौन हुआ करता था.. बेफिक्र सा, शुन्य सा मन लिए बस अपने आवारा क़दमों के दम पे पूरी जिंदगी, आवारा दिल के दम पे मनचाहे प्यार को पाने की इच्छाएं रखता था.. दोस्त थे साथ मे कुछ, जिनसे झगडे ही ज्यादा होते थे... पर अब भीड़ के साथ मे जो अकेलापन महसूस होता है उसमे उन सबकी बहुत याद आती है... उस वक़्त लगता है काश की कभी वो दिन लौट पाते...


क्या अब कभी लौट सकते हैं मेरे वो दिन..
बस देख के कुछ जलन सी होती है कभी,
हँसते से सड़कों पर चिल्लाते चेहरे देख के,
बेफिक्र आवारा से बस दौड़ते से वो कदम,
धुल मिटटी से सने बडबडाते हुए से हरदम.
बेपरवाह चाय के ठेलों पे चुस्कियां लेते,
कुछ अजीब बातों पे बहस सी करते हुए,
पल मे दोस्ती और अगले पल लड़ते हुए,
दिन की धुप मे भी छाँव की परवाह नहीं,
पसीने मे भीगते दुनिया को घुम जाना.
कॉलेज से भाग के तीन पत्ती का वो खेल,
घर आ के थका सा बिस्तर पे लेट जाना,
माँ का गर्म खाना देना प्यार से उस पल,
और उस पे  मेरा कुछ नखरा सा दिखाना,
याद अब भी आता है माँ के हाथ से खाना,
घनी धुप मे निकल जाना दोस्तों के साथ,
धुल भरी सडकें और गलियों को फांकना,
उस समोसे को हरी चटनी के साथ खाना,
चाय संग अपनी प्रेम कहानी दोस्त को सुनाना,
खाली वक़्त दो लाइन की शायरी लिख इतराना,
हाँ मैंने भी जिया है वो अपना लड़कपन दीवाना,
कभी किसी लड़की को देख के किसी सड़क पे,
दो दिन तक उन्ही रास्तों पे मंडराते रहते थे,
प्यार तो हमको भी रोज हुआ करता था,
और रोज ही बेचारा दिल टूटा करता था,
पैदल ना जाने कितने ही दूर निकल जाया करते थे,
जिंदगी तो चार क़दमों से ही नाप लेंगे लगता था,
हाँ हमने भी जी है वो आवारा लापरवाह जिंदगी,
पर आज न वो दिन हैं न ही वो बेफिक्र जिंदगी,
जाने कहाँ खो गया है वो खामोश हलचल भरा वक़्त,
हाँ मे लौटना चाहता हूँ आज फिर से वहीँ पे कहीं,
क्यूँ नहीं ये जिंदगी और कुछ छोटी सी होती है,
और उन्ही दिनों पे आ के कहीं रुक नहीं जाती,
बार बार मन से कहीं ये वेदना सी निकलती है,
क्या आज अब कभी लौट सकते हैं मेरे वो दिन.........