बुधवार, 29 अगस्त 2012 | By: हिमांशु पन्त

यहाँ कोयले से अरबों की दावत हो चुकी है

लबों को सीने की तो अब आदत हो चुकी है,
पेट भरने की जुस्तजू सियासत हो चुकी है,
उन लोगों को क्या इल्जाम दें जो की गैर हैं,
यहाँ तो अपनों की ही खिलाफत हो चुकी है।

बेईमानी तो अपनों की इबादत हो चुकी है,
चूल्हा जलाना भी अब आफत हो चुकी है,
रसोई गैस के दामों को रोने वालों समझो,
यहाँ कोयले से अरबों की दावत हो चुकी है।

सफ़ेद कमीज

पगडण्डी किनारे कुछ निहारता सा चला,

देखा जो कुछ जहन में उतारता सा चला,

मोटी रोटियाँ सिंक रही थी कहीं इंटों पे,

तो कहीं कुछ बीड़ियाँ सुलग रही थी,

मगर बड़े खुश थे ये जैसे कोई दर्द नहीं,

जहाँ से अनजान से वो मस्त से चेहरे,

कहीं बर्तन पे चावल भी उबल रहे थे,

तो किसी रोटी पर प्याज कटा रखा था,

मन किया की मै भी थोडा चख के देखूं,

मगर मेरी कमीज कुछ ज्यादा सफ़ेद थी.