बुधवार, 14 जुलाई 2010 | By: हिमांशु पन्त

धधक

प्रचंड सा दर्शित होता जग, क्यूँ दुश्मन सा ललकार रहा,
खोया हुआ तेरा ये आवेश, क्यूँ मूक बन सब निहार रहा.
धधक रही मन मे ज्वाला, क्यूँ फिर भी चित्त खामोश है,
क्यूँ कल का ये वीर पुरुष, बिना युद्ध किये ही हार रहा.

गहराता ये घनघोर धुआं, क्यूँ आज उस को डरा रहा,
वेग पुरुषत्व का था जो, आज क्यूँ कीट सा घबरा रहा,
आक्रोश से भरा चेतन, क्यूँ फिर भुजाएं फड़कती नहीं,
क्यूँ कल का वो देवपुरुष, आज अंधकार से चकरा रहा.

कहाँ गए वो राम कृष्ण, और कहाँ गए वो ब्रह्मा शिव,
देव थे अगर तुम बोलो, क्यूँ कलयुग मे जग को छोड़ा,
क्यूँ नहीं उठता आज भी, कोई अस्त्र काल के नाश को,
या सिर्फ तुम अपनी झूठी गाथा लिखवा के चले गए??