रविवार, 25 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक ग़ज़ल

वैसे तो ग़ज़ल मे लिखता नहीं.. और ना ही मेरी इतनी औकात है.. पर फिर भी कुछ कचोटा सा मन आज किसी बात से, तो बस एक कोशिश भर कर दी... देखें कितना सफल हुआ हूँ....  



तेरे अहद-ए-तरब ने कुछ इस ढब अश्क बार किया,

मेरी खरोश से तो दहर भर ने भी अश्क बार किया.



कुछ अघ्लाब से आशना ने हम पे वासिक वार किया,

क़ल्ब तो रोया ही मगर पैकर ने भी अश्क बार किया.



दम-बा-दम तुने खवाबों को इस कदर तार तार किया,

दयार-ए-खुफ्तागां मे बंद नजर ने भी अश्क बार किया.



कुछ इस कदर हमने लम्हात-ए-याद-ए-यार किया,

मेरा दर्द अंगेज दीद हरेक पहर ने भी अश्क बार किया.



खामोशियों मे जब कभी बसर करने का काविश किया,

तेरा जिक्र सुझा कहीं तब हर दर ने भी अश्क बार किया.


 
वक़्त की हर एक सुई  कुछ  इस कदर तेरे दस्तों दे दी थी,

वापिस माँगा तो मेरे हरेक  सफ़र ने भी अश्क बार किया.

कुछ कठिन शब्दों के अर्थ..
 


अहद-ए-तरब - खुशनुमा वक़्त मे किये गए वादे
खरोश - चीखना या रोना
दहर - जमाना
अघ्लाब - इस कदर
आशना - मोहब्बत या कोई दिल के करीब
वासिक - कठोर
दयार-ए-खुफ्तागां - सोती हुई दुनिया
दस्तों - हाथों
काविश - सोचा