बुधवार, 7 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

क्यूँ बोलूं.

खामोशियों मे कभी चीखने का मन होता है बहुत, पर फिर मन सोचने लगता है की क्या फायदा चीख के.. लोग मिलते हैं तो पूरे मन की व्यथाएं, खुशियाँ सब कुछ बोल देने का मन करता है.. पर फिर सोचता हूँ की आखिर क्या बोलूं और क्यूँ बोलूं... तो इस रचना मे जो दो पंक्तियाँ लिखी हैं हर भाग मे, उनका अर्थ मेरे लिए तो बहुत बड़ा और गहरा है.. आशा है की आप भी उसे पकड़ लोगे...


जीवन की कठिन राहों पे,
सफ़र तो अकेले ही करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


यादें तो आनी ही हैं,
उनमे ही जीवन कटना है,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


चिंतन करने की क्यूँ सोचूं,
होनी को तो होना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


कर्तव्यों की आढ़ मैं,
वादों को तो टूटना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


सपने तो दिखते ही हैं,
पर रिश्तों को भी तो जीना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


ख्वाहिशें तो काम है चेतन का,
और उसको तो वो करना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


जीवन सिर्फ जीता ही तो नहीं,
एक दिन तो उसको भी मरना है,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं.


गलतियां तो हुई है बहुत सी,
पर पीछे जाना तो होगा नहीं,
फिर क्या बोलूं मे क्यूँ बोलूं.


खामोश भी रहा नहीं जाता,
पर दर्दों को भी कोई सुनता नहीं,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं......

2 comments:

Shekhar Kumawat ने कहा…

खामोश भी रहा नहीं जाता,
पर दर्दों को भी कोई सुनता नहीं,
फिर क्या बोलूं मैं क्यूँ बोलूं......


good

bahut khub


shekhar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सही!

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