गुरुवार, 6 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

रोज की एक कविता....आखिर कैसी

मै कुछ दिनों से खुद को ढूंढ रहा हूँ.. हाँ शायद बेवकूफी है पर क्या करूं मै हूँ ही जरा सनकी व्यक्तित्व,, बस धुन लग जाती है कोई तो उसी को पकड़ के बैठ जाता हूँ.. कोई नहीं इसका अपना अलग ही मजा है.. लिखना अच्छा लगता था बहुत पहले से, लिखने लगा.. कुछ शायरी २ लाइन की, फिर कुछ कविता और फिर अपने ही बारे मे... एक दिन आया की सोचा बस बहुत हुआ लिखता हूँ तो लेखन मे स्थिरता लायी जाये.. ले आया कविता लिखनी शुरू कर दी.... रोज की एक कविता.. फिर सोचा ग़जल लिख दूं.. तो आप लोगों की आँखों के सामने  ३- ४ दिन लगातार ३-४ ग़जलें भी लिख डाली.. अब २ - ४ दिन से मन कर रहा है अपने लिखने पे लिखने का.. तो अब वो लिख रहा हूँ... ना जाने कल क्या सोच लूँगा, पर हाँ लिखूंगा अब हमेशा.. वक़्त जब तक साथ देगा और सांसें जब तक साथ देंगी.. युवा हूँ पर घर का छोटा हूँ तो थोडा सा बचपना है.. सीख रहा हूँ.. माफ़ करियेगा गलतियों को..

एक ताल,
या
एक नदी,
या फिर
एक बहती
सरिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

खुला आसमान,
या
असीमित जमीं,
या फिर
कोई जीवन
संहिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

महकता उपवन,
या
कोमल कोपल
या फिर
कोई सुन्दर
वनिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

उलझा जीवन
या
नटखट बचपन
या फिर
कोई युवा
अजिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

4 comments:

Dev K Jha ने कहा…

बहुत खूब हिमांशु...

दिलीप ने कहा…

waah Himanshu ji din pa din lekhni me nikhar aata ja raha hai...

Noopur Pande Mishra ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
kjdhgsj ने कहा…

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