रविवार, 9 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

याद है जख्मों पे तू अक्सर मरहम लगाती थी.....

लीजिये  जनता... एक रचना.. बैठे बैठे बस बन पड़ी, ज्यादा कुछ सोचा नहीं और ना ही ज्यादा दिमाग लगाया... शब्द ढूंढे, कड़ियाँ ढूंढी उनको जोड़ा और लिख दिया...


तेरी यादों को जब तलक सोचता रहा, 
तेरे अक्स को तब तलक खोजता रहा.

पहले भी तो तन्हा ही रहा करता था,
पर तेरे जाने पे क्यु तुझे कोसता रहा.

अक्सर जिंदगी मे ऐसा होता ही रहा है,
तो तेरे रूठने पे क्यूँ मन मसोसता रहा.

वक़्त की जंजीर तो होती हैं जकडने को,
तो क्यूँ हर बार कड़ियों को तोड़ता रहा.

जितना पास आया तेरे तू दूर जाती रही,
फिर भी तेरी ओर क्यूँ आखिर दौड़ता रहा.

तेरे मिलने की कोई भी उम्मीद ना बची थी,
फिर भी जाने क्यूँ हर दर तुझे खोजता रहा.

याद था जख्मों पे अक्सर मरहम लगाती थी,
तो तेरे आने की आरजू मे जख्म खोदता रहा
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गुरुवार, 6 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

रोज की एक कविता....आखिर कैसी

मै कुछ दिनों से खुद को ढूंढ रहा हूँ.. हाँ शायद बेवकूफी है पर क्या करूं मै हूँ ही जरा सनकी व्यक्तित्व,, बस धुन लग जाती है कोई तो उसी को पकड़ के बैठ जाता हूँ.. कोई नहीं इसका अपना अलग ही मजा है.. लिखना अच्छा लगता था बहुत पहले से, लिखने लगा.. कुछ शायरी २ लाइन की, फिर कुछ कविता और फिर अपने ही बारे मे... एक दिन आया की सोचा बस बहुत हुआ लिखता हूँ तो लेखन मे स्थिरता लायी जाये.. ले आया कविता लिखनी शुरू कर दी.... रोज की एक कविता.. फिर सोचा ग़जल लिख दूं.. तो आप लोगों की आँखों के सामने  ३- ४ दिन लगातार ३-४ ग़जलें भी लिख डाली.. अब २ - ४ दिन से मन कर रहा है अपने लिखने पे लिखने का.. तो अब वो लिख रहा हूँ... ना जाने कल क्या सोच लूँगा, पर हाँ लिखूंगा अब हमेशा.. वक़्त जब तक साथ देगा और सांसें जब तक साथ देंगी.. युवा हूँ पर घर का छोटा हूँ तो थोडा सा बचपना है.. सीख रहा हूँ.. माफ़ करियेगा गलतियों को..

एक ताल,
या
एक नदी,
या फिर
एक बहती
सरिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

खुला आसमान,
या
असीमित जमीं,
या फिर
कोई जीवन
संहिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

महकता उपवन,
या
कोमल कोपल
या फिर
कोई सुन्दर
वनिता हो,
तुम्ही
बता दो
आखिर कैसी मेरी कविता हो.

उलझा जीवन
या
नटखट बचपन
या फिर
कोई युवा
अजिता हो,
तुम्ही
बता दो,
आखिर कैसी मेरी कविता हो.
बुधवार, 5 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

फिर एक कविता.....

कविता पे एक कविता..... क्या क्या लिख जाते हैं हम लोग कविता मे... या कविता होती कैसी है..... या कैसे बनती है... वही लिख दिया.... फिर एक कविता.....


उन दर्दों को फिर आज सुनाने का दिल करता है,
आज फिर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.

बारिश की बूदें हों या वो बिजली की चमक,
बस फिर कुछ कह जाने को दिल करता है.
बादलों की गडगडाहट हवा की सरसराहट,
इन सबको आज आजमाने को दिल करता है.

इस मौसम को बस गुनगुनाने को दिल करता है,
आज फिर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.

वक़्त की सुइयों को और रिश्ते की डोरों को,
फिर से जग को समझाने को दिल करता है.
सारी भूली यादों को उन अनकहे जज्बातों को,
एक बार फ़िर से जी जाने को दिल करता है.

आंसु को आज फ़िर स्याही बनाने को दिल करता है,
आज फ़िर एक कविता लिख जाने को दिल करता है.
मंगलवार, 4 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

एक दफा फिर

लीजिये फिर से आ गया मे अपने नए नए बने शौक को ले के.. हाँ जी पेश-ए-खिदमत है एक और ग़जल... एक दफा फिर..




एक दफा फिर हमे अपनों ने लूटा है,

एक दफा फिर आज ये दिल टूटा है.


दिल पे बहुत किया यकीं अब तक,

अब पता चला की ये दिल झूठा है.


कल तलक सोचा था उन को अपना,

आज फिर उसने मेरा सपना लूटा है.


याद भी उसे कर आखिर क्या करना,

अब तलक कहाँ उसने हमे पूछा है.


मैकदे मे इस ढब गुम चुका यारों,

जैसे पूरा जिस्म मदहोशी मे डूबा है.


वक़्त इस कदर हमसे खफा सा है,

लग रहा मेरा अक्स मुझसे रूठा है.
सोमवार, 3 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

बेलगाम वक़्त

सभी को पता है की वक़्त तो बस भागता ही है.. और किसी के रोके रुकता नहीं फिर भी एक कोशिश रहती है कई बार वक़्त पे विजय पाने की तो उसी कोशिश को अभिव्यक्त कर दिया है इस रचना मे....

कोशिश करता और फिर थकता हूँ,
हर पल थामने को लगा रहता हूँ,
पर मेरी उम्मीदों से ज्यादा सख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

बचपन मे भी इसको पकड़ना चाहा,
जवानी मे भी इसको जकड़ना चाहा,
पर हमेशा से दिल मे डालता लख्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

गाँव मे कुछ ठहरा सा दिख जाता,
पर शहरों मे बस भागता सा जाता,
न जाने कैसा सफ़र करता कम्भक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

वादों की ना है कुछ परवाह इसको,
ना ही कसमों से रहे कुछ मतलब,
बस अपने धुन मे चले है मदमस्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

एक उलझन है मन मे इसको ले के,
जीवन बढाता या घटाता इसका संग,
साथ मे तो बहा ले जाता है हर रक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.

अति बलवान और कभी अति जटिल,
कभी चपल रहे और कभी शिथिल,
हर युग हर वेश मे ये रहता सशक्त,
छूटता जा रहा है ये बेलगाम वक़्त.
रविवार, 2 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

भुल चुक माफ़... बस ऐसे ही लिख दिया.. क्या लिखूं?

लिखने का मन कर रहा था, कुछ सूझ ही नहीं रहा था... बहुत कोशिश की, कोशिश करते करते चिढ़ सी होने लगी... तो बस ऐसे ही कुछ अपनी सोच को ही लिख डाला की क्या लिखूं...  तो बस कुछ ऐसे ही है, माफ़ करियेगा..

कुछ कुछ सोचता हूँ,
फिर कलम उठाता हूँ,
और
फिर कुछ फाड़ता हूँ,
कुछ लिखने का मन है,
पर क्या लिखूं?

कई बातें मेरे मन मे,
कई अनकहे जज्बात,
और
बहुत सी बिखरी सोचें,
इनमे ही उलझ जाता हूँ,
अब क्या लिखूं ?

तेरी वफायें भी याद हैं,
तेरे धोखे भी साथ हैं,
और
वो उन दिनों का प्यार,
तो कैसे तुझे रुसवा करूं,
अब क्या लिखूं ?

अपने बचपन की बातें,
या लड़कपन के किस्से,
और
वो जवानी की बेरुखी,
किस वक़्त को बयां करूं,
अब क्या लिखूं ?

एक निराला सा गीत,
या एक रूमानी ग़जल,
और
दुनिया पे एक कविता,
इत्ता सब है लिखने को,
पर क्या लिखूं ?
शनिवार, 1 मई 2010 | By: हिमांशु पन्त

थाम के मेरा हाथ

बस ऐसे ही कुछ सोचा... कहीं पे एक चित्र देखा तो मन मे बस ये ही बोल उठ पड़े... शायद एक स्त्री जो अपने प्रेम के लिए किसी भी हद तक जा सकती है किसी भी परेशानी का सामना कर सकती है... उसी के नाम मेरी ये रचना..


कभी किन्ही अनजानी राहों पे,
कभी ऊँची नीची चट्टानों पे,
अगर कभी मै डगमगा जाऊं,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

समुन्दर की भयावह लहरों से,
आंधी के बलवान थपेड़ों से,
अगर कभी मै सहर जाऊं,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

गर्मी की चाहे लाख तपिश हो,
या बारिश भी रौद्र रूप मे,
मै उनमे भी चल जाऊँगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

ये जग चाहे लाख सताए,
दुनिया चाहे लाख डराए,
सब छोड़ मै तेरे संग आऊँगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.

चाहे जैसा भी सफ़र  हो,
चाहे जितनी कठिन डगर हो,
हर कदम तेरे साथ रखूंगी,
थाम के मेरा हाथ सजन रे,
एक बार कहना मै तेरी हूँ.