रविवार, 22 अप्रैल 2012 | By: हिमांशु पन्त

निराकार - हाइकु


तुम वक़्त हो,

तो क्या डर जाऊं मैं,

बीत जाओगे.
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इंतेहां ख़त्म,

सब्र किया बहुत,

जल जाओगे.
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जलता जिस्म,

ग्रीष्म है अति प्रचंड,

कब आओगे.
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आकाश देखो,

दमक रहा ढीठ,

हार जाओगे.

कृपया इस पोस्ट को न पढ़ें

कृपया इस पोस्ट को न पढ़ें क्यूंकि .......................................................................................................................................................................................................................................................................................................................
ये लिखने के बावजूद भी शायद काफी लोग इसे पढने की कोशिश करेंगे, क्या करें गलती आपकी नहीं मानव स्वाभाव की है, जहाँ से दूर रहने को कहो वहीँ ऊँगली करने में मजा आती है. खैर बुरा न मानें मजाक कर रहा हूँ ये पोस्ट सिर्फ और सिर्फ शुद्ध रूप से कुछ जांचने की वजह से की गयी है... तकलीफ के लिए क्षमा हालाकि मुझे क्षमा मांगनी नहीं चाहिए... :)

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012 | By: हिमांशु पन्त

ग्रीष्म और यौवन - हाइकु

प्रचंड ग्रीष्म,
ज्यों यौवन प्रगाढ़,
हे देव कृपा.

बने रहो पगला, काम करेगा अगला

जनाब कभी कभी लगता है की हम दुनिया को बेवकूफ बना रहे हैं या फिर नहीं ये दुनिया सब जानती है और हमे अपनी चालाकी पे इतराता हुआ देख हौले से हंस रही है. पर खैर जो कुछ भी है हमने तो मन बना लिया है छलते हुए इस दुनिया को जीने का. हाँ ठीक है दुनिया जानती है तो क्या?? मै क्या करूं मै तो खुश हूँ ना. वास्तव मे आजकल जीवन जीने का यही तो एक रिवाज है.


खुद को ठग के क्यूँ जियूं,
जब पूरा जग सामने खड़ा,
खुद को प्यासा क्यूँ रखूँ,
जब पूरा ताल सामने पड़ा,
बहुत जी चुका घुट घुट के,
अब कर निज ह्रदय को कड़ा.


वास्तव मे अगर आपको सफल होना है तो बस आप एक अच्छे दिमागदार व्यक्ति होने चाहिए जिसका दिमाग चले तो सिर्फ उपद्रव मे. हाँ जी सही पढ़ा आपने आप एक ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो सिर्फ और सिर्फ अच्छी तरह से अपने सिरमौर को और समाज को बेवकूफ बना सके. अगर आप मे सिर्फ ये ही एक गुण भी है तो आप एक सफल व्यक्ति हो. निःसंदेह मुझे अपनी बातों का प्रमाण रखने की जरुरत नहीं है क्यूंकि आप मे से कई खुद भी कई बार बेवकूफ बन के उस व्यक्ति का फायदा करा चुके हो. खैर यहाँ पे बेवकूफ बनाने से मेरा आशय है की बस आप काम करो ना करो, आप को किसी वस्तु विशेष के बारे मे पता हो या ना हो आपको दिखाना होगा की आप तो बस इस मामले मे प्रगाड़ हो. यहाँ पे एक ज्ञान याद आ रहा है, मेरी मेल पे किसी ने कभी अग्रेषित किया था..

कुछ इस तरह की पंक्तियाँ थी.. टूटी फूटी याद हैं कुछ...

काम करो ना करो,
काम की फ़िक्र जरुर करो.
फ़िक्र भी करो ना करो,
काम का जिक्र जरुर करो.
बने रहो पगला, काम करेगा अगला.
रविवार, 15 अप्रैल 2012 | By: हिमांशु पन्त

मेरा पहला हाइकु


सावन की खुशबु,
तेरा दीदार,
है यही इंतजार.
.

 

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
सड़क किनारे बैठी बूढी औरत,
न मालुम किसको ढूंढ रही थी,
कुछ गुम सा गया था शायद,
या शायद वो खुद गुम गयी थी,

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
कुछ जली लकड़ी के टुकड़े किनारे,
दो काली पड़ी ईटों के बीच पड़े थे,
शायद रोटियाँ बनी थी इस जगह,
या शायद रातों को हाथ सीके थे.

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
कुछ पुराने कपड़ों के चीथड़े देखे,
मैले से और भीगे हुए वो टुकड़े थे,
शायद कोई उनको फेंक गया था,
या शायद किसी ने रात में ओढ़े थे.

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
पगडण्डी पे फिर एक कुटिया देखी,
दरवाजे पे उसके एक खाट पड़ी थी,
शायद अन्दर कल जगह नहीं थी,
या शायद बूढ़े की खांसी बिगड़ी थी.

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
आगे फिर एक चौराहा सा आया,
किनारे उसके कुछ लाल पड़ा था,
शायद किसी ने पीक थी थुकी,
या शायद कल फिर खून बहा था.

बस यूँ ही निकल पड़ा था घर से,
एक मनमौजी आवारा मन ले के,
बस देखता रहा सड़कों पे चलते हुए,
एक वक़्त फिर मन कुछ बिदका,
वापस घर को अब लौट चला था,
शायद कुछ थकान सी थी लगी,
या शायद ये मन कुछ मचला था.
सोमवार, 2 अप्रैल 2012 | By: हिमांशु पन्त

आइना

कहते हैं आइना दूसरी दुनिया का दरवाजा है..
मुझे ये दरवाजा बहुत खूबसूरत लगता था..
फिर एक दिन तुझको देखा किसी तदबीर मे..
और अब वो दुनिया कुछ अजीब लगती है..


कहते हैं आइना सब के सच दिखा देता है..
मुझे ये सच देखना बहुत पसंद आता था..
फिर एक दिन देखा तुझे किसी तकदीर में..
और अब वो सच्चाई कुछ अजीब लगती है.

कहते हैं आइना के रंग हजार होते हैं..
मुझे ये रंग बहुत रंगीन से लगते थे..
फिर एक दिन देखा तुझे किसी तस्वीर में..
और अब वो रंगीनियत कुछ अजीब लगती है..
रविवार, 1 अप्रैल 2012 | By: हिमांशु पन्त

माँ मै बहुत डरता हूँ

बहुत लम्बी दुर्गम डगर है,
धकेलती हुई सी चलती भीड़,
पता नहीं कहाँ पर दबा हुआ,
तब तुझे ही याद करता हूँ,
पता है माँ मै बहुत डरता हूँ.

तेरे सामने तो जितना बनूँ ,
बाहर बहुतों से निपटना है,
थक भी जाता हूँ बहुत बार,
तब तेरी गोद याद करता हूँ,
पता है माँ मै बहुत डरता हूँ.

बचपन के दिन अच्छे थे,
बस तुझे सताना मनाना,
कभी कुछ गलत कर बैठूं,
तब तेरी डांट याद करता हूँ,
पता है माँ मै बहुत डरता हूँ.