मुझे कुछ इस कदर नशा सा हो गया है ग़जल लिखने का की बस हाथ थमते ही नहीं... लीजिये पेश ए खिदमत है एक और ग़जल .. दिल के बेहद करीब.. :)
तुझ से मिलने की जब कभी भी ख्वाहिश की थी,
मजबूरियों ने तब कुछ रुकने की फरमाइश की थी.
इक दफा फिर से तेरी यादों ने रुलाया है मुझको,
रुक्सती के दिन भी तो अस्कों ने नुमाइश की थी.
अब भी तो सोचा करता हूँ अक्सर तेरे चेहरे को,
उस वक़्त भी तेरे इक दर्श की आजमाइश की थी.
मालुम था की तेरे दिल मे कोई जगह नहीं मेरी,
फिर भी सफ़र मे कुछ पल की गुंजाइश की थी.
आँखों मे अब तलक भी दिखता है अक्स तेरा,
तेरी नजरों ने मेरी आँखों मे ये जेबा'इश की थी.
तू ही बता कैसे छोडूं अब इस तन्हाई का साथ,
बिन तेरे इसके दम ही जीने की आराइश की थी.
मजबूरियों ने तब कुछ रुकने की फरमाइश की थी.
इक दफा फिर से तेरी यादों ने रुलाया है मुझको,
रुक्सती के दिन भी तो अस्कों ने नुमाइश की थी.
अब भी तो सोचा करता हूँ अक्सर तेरे चेहरे को,
उस वक़्त भी तेरे इक दर्श की आजमाइश की थी.
मालुम था की तेरे दिल मे कोई जगह नहीं मेरी,
फिर भी सफ़र मे कुछ पल की गुंजाइश की थी.
आँखों मे अब तलक भी दिखता है अक्स तेरा,
तेरी नजरों ने मेरी आँखों मे ये जेबा'इश की थी.
तू ही बता कैसे छोडूं अब इस तन्हाई का साथ,
बिन तेरे इसके दम ही जीने की आराइश की थी.
जेबा'इश - बसाना, स्थापित करना.
आराइश - सजावट