कुछ बावरा सा ही होता है मन, चाहे जिस किसी का भी हो, बहुत सी उमंगें और सोचें उसमे फलांग मारती रहती हैं.. उन्ही मे से कुछ मचलती सी भावनाओं को बस लिख भर दिया है....
मन करता कभी उडूं मै,
चल जाऊं उस बादल पे,
सहलाऊं धीरे से उसको,
दो बूँद जल की ले आऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
छु लूं मै उन तारों को,
तोड़ के बस किसी एक को,
मुट्ठी मे बंद कर लाऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
और जाऊं चाँद के पास,
उसको थोडा सा छु कर के,
उसकी ठंडक को पा जाऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
जाऊं उस सूरज पे चढ़,
थोडा सा फूक के उसको,
बस कुछ ठंडा कर आऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
पक्षियों के संग संग जाऊं,
सीखूं उनसे चहचहाना,
और कुछ तिनके भी ले आऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
बारिश की तह तक जाऊं,
ऊपर से देखूं गिरता उनको,
और थोडा सा रंग मिलाऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
हवा के संग बहता जाऊं,
दूर चलूँ फिर किसी देश मे,
और थोड़ी सी मिटटी भर लाऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
दूर कहीं आसमान मे,
और देखूं फिर दुनिया को,
फिर वहां से इक चित्र बनाऊं.
मन करता कभी उडूं मै,
पर्वतों पे कहीं पहुँच के,
उन पे गोदुं कुछ मन का,
और सबको अपने गीत दिखाऊं.
Pages
शुरुवात से ही एक स्वछंद पक्षी की भांति जीता रहा हूँ. कुछ लिखना चाहता था हमेशा से, अब क्यूँ है मन में ये, तो इसका भी जवाब है मेरे पास.. बहुत इच्छाएं आशाएं करी, पर सभी तो पूरी नहीं होती और कुछ हो भी जाती हैं, तो वही आधी अधूरी और कुछ पूरी इच्छाओं की खुशी या कष्ट को कहाँ पे कैसे व्यक्त करता, तो बस उठा ली कलम कुछ साल पहले,गोदा और फाड़ा, लिखता था तो मन में भावना आती थी की किसी को पढ़ाऊं, जिसको बोलता वो नाख भौं निचोड़ के आगे बढ़ चलता.. तकनीक का सहारा लेने लगा, तो अब आपके सामने हूँ..
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ऊपर वाला
मजहब ... कुछ स्वार्थी लोगों ने इस शब्द को कुछ इत्ता डरवाना बना दिया है की मजहब और धर्म का नाम कुछ खून का सा पर्याय बन गया है.. तो उन्ही भावनाओं को की किस तरह से हमारे घरों मे छोटे बच्चों को क्या सिखाया जा रहा है और इतनी गहनता के साथ बच्चे उसे सीख रहे हैं, मैंने इस रचना मे डाला है..
एक दिन उसको पिता ने बोला,
बेटा तेरे अन्दर बसते हैं भगवां,
खेलने को निकला बाहर दुनिया मे,
मिला एक मोहम्मद से कहीं पे,
बोला पता है तेरे अन्दर हैं भगवां,
मोहम्मद बोला हट तुझे नहीं पता,
मेरे अन्दर तो रहता है मेरा खुदा,
बस झगड़ पड़े दोनों बिन सोचे,
तब छोटा डेविड भी आया कहीं से,
पुछा अरे दोस्तों क्यूँ झगड़ते हो,
दोनों बोले बता तेरे अन्दर कौन,
डेविड बोला अन्दर तो ईसा बसता,
तो वो झगडा था एक मासूम सा,
पर था उनका पहला मजहब का,
मै गुजर बैठा तभी उधर से,
लड़ते देखा तो पुछा क्यूँ लड़ते हो,
बोले बताओ अन्दर कौन है बसता,
मैंने कहा देखो हम सब इन्सां,
न कोई हिन्दू न कोई मुसल्मां,
हमारे अन्दर एक ही रचयिता,
चाहे कह लो उसे खुदा या ईसा,
मानो तो बस एक ही रहनुमा,
मै तो कहता उसे ऊपर वाला,
उस पल बच्चे दिए मुस्कुरा,
जैसे कह रहे हों मुझको पगला...
बोला पता है तेरे अन्दर हैं भगवां,
मोहम्मद बोला हट तुझे नहीं पता,
मेरे अन्दर तो रहता है मेरा खुदा,
बस झगड़ पड़े दोनों बिन सोचे,
तब छोटा डेविड भी आया कहीं से,
पुछा अरे दोस्तों क्यूँ झगड़ते हो,
दोनों बोले बता तेरे अन्दर कौन,
डेविड बोला अन्दर तो ईसा बसता,
तो वो झगडा था एक मासूम सा,
पर था उनका पहला मजहब का,
मै गुजर बैठा तभी उधर से,
लड़ते देखा तो पुछा क्यूँ लड़ते हो,
बोले बताओ अन्दर कौन है बसता,
मैंने कहा देखो हम सब इन्सां,
न कोई हिन्दू न कोई मुसल्मां,
हमारे अन्दर एक ही रचयिता,
चाहे कह लो उसे खुदा या ईसा,
मानो तो बस एक ही रहनुमा,
मै तो कहता उसे ऊपर वाला,
उस पल बच्चे दिए मुस्कुरा,
जैसे कह रहे हों मुझको पगला...
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About Me
- हिमांशु पन्त
- मैं एक वो इंसान हूँ जो जिंदगी को खेलते हुए जीना चाहता है और ऐसे ही जीवन की सभी दुविधाओं को ख़तम करना चाहता है... मतलब की मै कुछ जिंदगी को आसां बनाना चाहता हूँ.. वास्तव मै मै अपने सपनों और इच्छाओं मे और उनके साथ जीना चाहता हूँ.. मैं अपने भाग्यचक्र को हराना चाहता हूँ पर ये भी सच है की मे भाग्यचक्र के साथ चलना भी चाहता हूँ.. शायद मे कुछ उलझा हुआ सा हूँ अपने मे.. तो बस आप मेरे मित्र बन के रहो और साथ ही इस उलझन का एक हिस्सा भी... तो मुस्कुराते रहो और अपनी जिंदगी को जिन्दा रखो... वादा है मुश्किलें आसां हो जाएँगी... :)