शनिवार, 26 सितंबर 2009 | By: हिमांशु पन्त

जीवनपथ

मेरे मन मे सदा से जीवन को ले के अजीब से विचार और फिर कुछ प्रश्न घूमते रहते हैं... उन्ही को कुछ पंक्तिबद्ध करने की कोशिश है मेरी ये रचना...

जीवनपथ पर बस चलता ही रहा,
जो पथ दिखा बस मुड़ता ही रहा,
कभी सोचा ही नही की कौन हूँ में,
आखिर कहाँ क्या अस्तित्व है मेरा,
की मै भी तो उसी भीड़ का हिस्सा हूँ,
जिसे मै अक्सर खुद भीड़ कहता हूँ,
की मेरे भी तो वही सब कर्तव्य हैं,
जिनको मै अक्सर भीड़ में ढूंढता हूँ,

पर क्या में वो हूँ जो तुम्हे देखना चाहता हूँ ?

नही मै वो नही मै तो बस खुद को छलता हूँ
बस तुम मे अपने मन चाहा देखना चाहता हूँ,
ख़ुद मे झांके बिना तुम मे सब ढूँढना चाहता हूँ.

क्या मै वो हूँ जो वास्तव में होना चाहता हूँ,
क्या मै सही जी रहा हूँ, या बस जी रहा हूँ,
बस एक निरुत्तर पंथी की तरह चल रहा हूँ.