शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

सूखे ह्रदय की प्यास

कुछ ग़ज़लों के बाद अब फिर से अपने पुराने ढर्रे पे लौट आया हूँ.. हाँ जी मेरे गीत मेरे दर्द.. असल मे जब आपके बहुत से बिखरे अरमान होते हैं तो उनको ना पा पाने का दर्द ही उन अरमानों को भुला देता है.. तकलीफें इतनी ज्यादा बढ़ जाती हैं की आप इच्छाओं को तो भुल ही जाते हो उन दर्दों के आगे....

मधुशाला की मेजों पे,
छलकते हुए कुछ गिलास,
बहके से चंद मायूस लोग,
और कुछ टूटी हुई आस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


यादों की परछाइयों से,
डरती हुई हर एक सांझ,
नित्य रात के अंधेरों मे,
घुटती हुई हर एक सांस,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


मन बावरे की ख्वाहिसें,
फिर कुछ घबराते आभास,
मन के कई करुण गीत,
और मेरी खामोश आवाज,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.


वक़्त के चलते पहिये,
कुछ छुटते हुए से हाथ,
दुखते हुए से कुछ घाव,
उनको गहराती तेरी याद,
ऐसे ही बुझ जाती है अब,
मेरे सूखे ह्रदय की प्यास.

2 comments:

Pushpa Paliwal ने कहा…

bahut dard he tere geeto me..mujhse pada nahi jata

kunwarji's ने कहा…

जी बहुत ही सुन्दर रचना लगी जी !वाह!

कुंवर जी,

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