बुधवार, 21 अप्रैल 2010 | By: हिमांशु पन्त

किराये की जिंदगी

कभी किसी कभी किसी की,
हमेशा दूसरों की तर्ज पे जी,
पता नहीं अपनी कब होगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

कभी रिश्तों कभी दोस्तों की,
ख्वाहिशें दूजों के मन की ही,
मेरी अधूरी इच्छाओं से भरी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मंजिलें तो तय थी खुद की,
पर रास्ते दुनिया दिखाती,
रास्तों मे कहीं उलझी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

जन्म से ही दूसरों से सीखा,
जो अच्छा लगा वो था बुरा,
अच्छे बुरे मे कुछ फंसी सी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

मौत भी कुछ अजनबी सी,
चाहने पे वो भी आती नहीं,
किराये से छूटने मे लगी,
मेरी ये किराये की जिंदगी.

1 comments:

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.

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