रविवार, 28 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

तलाश मंजिल की

मन की बहुत गहराइयों मे उतर के और ढेर सारा दर्द महसूस करते हुए ये कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं.. जाहिर है की दिल की गहराइयों से निकली हैं तो दिल के और मेरे जीवन के बहुत ही करीब भी होंगी... ये पंक्तियाँ लिख के शायद मे अपने दर्द को कहीं न कहीं आपसे बांटना चाहता हूँ.. कितना सफल हुआ हूँ इसका फैसला तो पढने वाला ही कर पायेगा.. पर ये वो पंक्तियाँ हैं जिनमे मुझे अपने मन की एक बहुत बड़ी कसक निकालने का मौका मिला है.. ये वो पंक्तियाँ हैं जहाँ पे मुझे किसी बहुत ही करीबी चीज को या आरजू को खोने की एक पीड़ा को व्यक्त करने का अवसर मिला है...


बढ़ना तो शुरु कर दिया, मंजिल की तलाश में, वो मंजिल जो सामने ही थी कहीं..
राह तो कुछ कठिन थी, मुश्किलों से सफ़र कुछ आसां किया तो खुद मंजिल ही धोखा दे गयी.


शिकायत भी करी कहीं पे तो खुद ही रुसवा हो गए, शायद गलतियाँ हमने भी की थी कहीं..
खुद को जब कुछ समझ आया, तो वक़्त ही न बचा था वक़्त माँगा तो घडी ही धोखा दे गयी..


सामने दिखती है वो अब भी, पर उस मंजिल पे किसी और की दस्तक दिखने लगी है अब तो..
उस दस्तक को चुप करके हराना चाहा तो जरुर, पर हमारी खुद की दस्तक हमे धोखा दे गयी..


कुछ वादे तो उसने भी किये थे हमसे, एक आस बाकी थी उन्ही वादों की जहन में कहीं..
सोचा की उसकी याद ही साथ दे देगी शायद, पर कम्भक्त उसकी याद भी हमे धोखा दे गयी..


खामोशियों के सिवा कुछ बचा न था अब, तो सोचा भीड़ बन के ही उसके करीब आ जायें कहीं..
कोशिश तो की थी जरुर हिस्सा बनने की, पर किस्मत का क्या कहिये वो भीड़ भी कम्भक्त धोखा दे गयी..


चलो तनहाइयों में खो के कहीं किसी दूसरी मजिल को तलाशें, सोच के आगे हम भी बढ़ चले..
दूसरी मंजिलें भी मिली बड़ी ही आसानी से, मगर इस बार पुरानी मंजिल की चाह धोखा दे गयी..

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें