मंगलवार, 30 मार्च 2010 | By: हिमांशु पन्त

मेरी मजबूरी...

कुछ मर्म सा है मेरे मन मे कुछ छुट सा जाने का, या कुछ खो जाने का, शायद आपको मेरी पुरानी रचनाओं मे भी इसकी काफी झलक दिखी होगी और आगे भी दिखती रहेगी.. कुछ है जो हमेशा कचोटता  है अन्दर से.....


न जाने क्यूँ मे खुद को पहचान नहीं पाता,
गम को तो छुपा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस मन की वेदना को छुपा नहीं पाता.

न जाने क्यूँ खुद को पथीक कहला नहीं पाता,
मंजिल तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर रास्तों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ तेरी यादों को भुला नहीं पाता,
तेरा सच तो पहचान भी लेता हूँ कभी कभी,
पर उन वादों को कभी पहचान नहीं पाता.

न जाने क्यूँ इन इच्छाओं को दबा नहीं पाता,
चेतन को तो समझा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर इस नासमझ चित्त को मना नहीं पाता,

न जाने क्यूँ इश्क अब किसी से कर नहीं पाता,
दिल को तो अब लगा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर तेरी यादों को अब भी मैं भूला नहीं पाता.

1 comments:

Shaivalika Joshi ने कहा…

न जाने क्यूँ इश्क अब किसी से कर नहीं पाता,
दिल को तो अब लगा भी लेता हूँ कभी कभी,
पर तेरी यादों को अब भी मैं भूला नहीं पाता.

Sach kuchh log bhulaye nhi ja sakte..........

Really Nice

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